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महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की कहानी


महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग-

  यह ज्योतिर्लिंग मध्यप्रदेश के उज्जैन नगर में स्थित है। यह भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में तीसरा माना जाता है। महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की विशेषता है कि ये एकमात्र दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग है। यह ज्योतिर्लिंग तांत्रिक कार्यों के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इस मंदिर के पास एक कुण्ड है जो कोटि कुण्ड के नाम से जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस कुण्ड में कोटि तीर्थ स्थलों का जल है और इसमें स्नान करने से अनेक तीर्थ स्थलों में स्नान का पुन्य प्राप्त होता है। ऐसी मान्यता है कि इस कुण्ड की स्थापना राम भक्त हनुमान ने की थी।
महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग

मान्यता-

    माना जाता है कि महाकाल की पूजा विशेष रूप से आयु वृद्धि और आयु पर आए हुए संकट को टालने के लिए की जाती है। मान्यता है कि महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन मात्र से भक्तों का मृत्यु और बिमारी का भय समाप्त हो जाता है। उन्हैं यहां आने पर अभय दान मिलता है। उज्जैनवासी मानते हैं कि भगवान महाकालेश्वर ही उनके राजा हैं और वे ही उज्जैन की रक्षा कर रहे हैं।

महाकाल की आरती- 

   यहां प्रतिदिन सुबह की जाने वाली भस्म आरती विश्व भर में प्रसिद्ध है। भस्म आरती महाकाल का श्रृंगार और उन्हैं जगाने की विधि है। आरती के समय जली हुई भस्म से महादेव महाकालेश्वर का श्रृंगार किया जाता है। यही भस्म इनका प्रमुख प्रसाद होता है। इस आरती के दौरान पुजारी एक वस्त्र यानि धोती का इस्तेमाल करते हैं। इस आरती में अन्य वस्त्र धारण करने का नियम नहीं है। भस्म आरती के दौरान पुरूष ही भाग ले सकते है। इस दृश्य को महिलाओं को देखना वर्जित होता है। उस समय उन्हैं कुछ मिनटों के लिए घुंघट करना अनिवार्य होता है। भक्त शिव की पूजा में प्रयोग होने वाली भस्म के दर्शन अवश्य करते हैं। ऐसा माना जाता है कि ऐसा न करने से अधूरा फल मिलता है।

                महाकाल आरती

शिव पुराण में वर्णित कथा-

   शिव पुराण की ‘कोटि-रुद्र संहिता’ के सोलहवें अध्याय में  भगवान महाकाल के ज्योतिर्लिंग संबंध में सूतजी द्वारा जिस कथा को वर्णित किया गया है, उसके अनुसार अवंती नगरी में एक वेद कर्मरत ब्राह्मण रहा करते थे। वे भगवान शिव के परम भक्त थे और अपने घर में पार्थिव शिवलिंग की स्थापित कर प्रतिदिन विधिवत पुजा किया करते थे और वैदिक कर्मों के अनुष्ठान में लगे रहते थे।

  उन दिनों रत्नमाल पर्वत पर दूषण नाम वाले धर्म विरोधी एक असुर रहता था। उस असुर को ब्रह्मा जी से अजेयता का वरदान मिला था। वह धर्मस्थलों और धार्मिक कार्यों को वाधित करने में लगा रहता था। इसी दौरान वह भारी सेना लेकर अवन्ति (उज्जैन) नगरी में भी आया। उसने व्राह्मणों को धर्म कर्म छोड़ने का आदेश दिया लेकिन किसी भी व्राह्मण ने उसके आदेश को नहीं माना। तब उसने अपनी सेना सहित अवंति नगरी में उतपात मचाना शुरू कर दिया जिससे हर तरफ जन साधारण में हाहाकार मच गया। उनके भयंकर उपद्रव से भी शिव जी पर विश्वास करने वाले वे ब्राह्मण भयभीत नहीं हुए।
उन्होंने अपने आराध्य भगवान शिव की शरण में जाकर प्रार्थना और स्तुति आरम्भ कर दी।


महाकालेश्वर मंदिर

  तब उस व्राह्मण द्वारा पूजित पार्थिव लिंग की जगह एक विशाल गडढा प्रकट हो गया और तत्काल उस गड्ढे से विकट और भयंकर रूपधारी भगवान शिव प्रकट हो गये। विकट रूप धारी शंकर ने भक्तों को आस्वस्त किया और गगनभेदी हुकार भरकर दैत्यों से कहा- ‘अरे दुष्टों! तुम जैसे हत्यारों के नाश के लिए ही मैं ‘महाकाल’ प्रकट हुआ हूं। ऐसा कहकर महाकाल भगवान शिव ने अपने हुंकार मात्र से ही उस दूषण और उसकी सेना को भस्म कर दिया। इस प्रकार परमात्मा शिव ने दूषण नामक दैत्य का वध कर दिया। उन शिवभक्त ब्राह्मणों पर अति प्रसन्न भगवान शंकर ने उन्हें आश्वस्त करते हुए उनसे वर मांगने के लिए कहा-

  तब भक्ति भाव से पूर्ण उन ब्राह्मणों ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की-  दुष्टों को दण्ड देने वाले 'प्रभु' आप हम सबको इस संसार रूपी सागर से मुक्ती प्रदान करें और जन कल्याण तथा उनकी रक्षा करने के लिए यहीं हमेशा के लिए निवास करें। तथा अपने सवंय स्थापित स्वरूप के दर्शनार्थी मनुष्यों का सदा उद्धार करते रहें।

   इस प्रार्थना से प्रसन्न होकर अपने भक्तों की सुरक्षा के लिए भगवान महाकाल उस स्थान पर स्थिर रूप से स्थापित हो गये। इस प्रकार भगवान शिव इस स्थान पर महाकालेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए।

एक अन्य प्रचलित कथा- 

महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग 2

  एक समय की बात है उज्जयिनी नगरी में राजा जितेन्द्रिय चन्द्रसेन नामक एक राजा राज करते थे। वह भगवान शिव के अन्नय भक्त थे। उनके सदाचरण से प्रभावित होकर शिवजी के गणों में मुख्य गण मणिभद्र जी राजा चन्द्रसेन के मित्र बन गये।  एक बार उन्होंने राजा चन्द्रसेन ने को चिन्तामणि नामक एक महामणि भेंट की। मणि प्राप्त करने के बाद राजा ने मणि जैसे ही गले में धारण की तो सारा प्रभामण्डल जगमगा उठा, साथ ही उसे धारण करने के बाद दूरस्थ देशों में उनके यश और कीर्ति में वृद्धि होने लगी।

  जब इस मणि के बारे में दूसरे राज्य के राजाओं को जानकारी मिली तो उन राजाओं में उस मणि के प्रति लोभ बढ़ गया और उन्होंने मणि को प्राप्त करने के प्रयास शुरू कर दिए। कई राजाओं ने राजा चन्द्रसेन से मणि की मांग की लेकिन राजा को यह मणि अत्यंत प्रिय थी अत: उन्होंने इसे किसी को भी देने से इन्कार कर दिया। अंतत: वे सभी राजा एक साथ मिलकर एकत्रित हुए और उन सभी राजाओं ने आपस में परामर्श करके राजा चन्द्रसेन पर आक्रमण कर दिया। सैनिकों सहित उन राजाओं ने चारों ओर से उज्जयिनी राज्य को घेर लिया। अपने राज्य को चारों ओर से सैनिकों द्वारा घिरा हुआ देखकर शिव भक्त राजा चन्द्रसेन महाकालेश्वर भगवान शिव की शरण में पहुंच गये। वे निश्छल मन से दृढ़ निश्चय के साथ भगवान महाकाल के ध्यान में मग्न हो गये।

  जिस समय राजा समाधिस्थ थे तो उज्जयिनी में रहने बाली एक विधवा ग्वालिन अपने इकलौते पांच वर्ष के बालक को लेकर महाकालेश्वर का दर्शन करने हेतु गई। राजा को शिव भक्ति में ध्यानमग्न देखकर उस वालक को बहुत ही आश्चर्य हुआ। राजा को ध्यानमग्न देखकर वह वालक शिव भक्ति के लिए प्रेरित हुआ। घर पहुंचने के बाद वह कहीं से एक सुन्दर  पत्थर उठाकर लाया और अपने निवास से कुछ ही दूरी पर एकान्त में बैठकर पत्थर को शिवलिंग मानकर भक्तिभाव से उसकी पूजा करने लगा। उसी समय ग्वालिन ने भोजन के लिए वालक को बुलाया। उधर वालक शिव जी की पूजा में लीन था, जिसके कारण उसने मां की बात को नहीं सुना। माता द्वारा बार-बार बुलाने पर भी जब बालक ने नहीं आया तो तब मां स्वयं उठकर वहां आ गयी।

महाकालेश्वर मंदिर

  माँ ने देखा कि बालक एक पत्थर के सामने आंखें बन्द करके भक्ति में मग्न है और उसकी आवाज को नहीं सुन रहा है। वह उसका हाथ पकड़कर बार-बार खींचने लगी पर इस पर भी बालक वहां से नहीं उठा तो क्रुद मां ने उसे पीटना शुरू कर दिया और पूजा सामग्री और उस पत्थर को उठाकर दूर फेंक दिया। जब वालक ध्यानमुक्त होकर चेतना मे आया तो उसने देखा कि भगवान शिव जी की पूजा को उसकी माता ने नष्ट कर दिया, तो वह बहुत दुखी हुआ और बिलख-बिलख कर रोने लगा।
   तभी व्यथा की गहराई से चम्तकार हुआ और भगवान शिव की कृपा से एक सुन्दर दिव्य मंदिर का निर्माण हो गया। मंदिर के मध्य एक दिव्य शिवलिंग स्थापित था और उसके द्वारा चढ़ाई गई सभी पूजन-सामग्री उस शिवलिंग पर सुसज्जित पड़ी हुई थी। जब माता की तंद्रा भंग हुई तो वह अश्चर्यचकित हुई और अपने पुत्र को गले से लगा लिया।

  जब राजा चन्द्रसेन को भगवान शिव की असीम कृपा से घटी इस घटना के बारे में पता चला तो वह वालक से मिलने उसके पास पहुंचे। जब मणि के लिए युद्ध पर उतारू अन्य राजाओं को जब इस बारे में पता चला तो वे भी युद्ध की मंशा छोड़कर भगवान महाकाल की शरण में पहुंचे।

  उसी समय राम भक्त हनुमान बहां प्रकट हुए और वालक को गोद में उठाकर समस्त राजाओं सहित राजा चन्द्रसेन को अपनी कृपादृष्टि से देखा। उसके बाद अति प्रसन्नता के साथ उन्होंने बालक और समस्त जन समुह को भगवान शिव की पूजा-अर्चना की जो विधि और आचार-व्यवहार भगवान शंकर को विशेष प्रिय है, उसे विस्तार से बताया। अपना कार्य पूरा करने के बाद वे उपस्थित समस्त जनसमुह से विदा लेकर वहीं पर अर्न्तधान हो गये। राजा चन्द्रसेन से विदा लेकर कर सभी अन्य राजा भी अपनी राजधानियों को वापस लौट गये।

   कहा जाता है भगवान महाकाल तब ही से उज्जयिनी में स्वयं विराजमान है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में महाकाल की असीम महिमा का वर्णन मिलता है। महाकाल साक्षात राजाधिराज देवता माने गए हैं। भगवान महाकाल ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने बाले भक्तों की मनोकामना पूरी करते हैं और उनका कल्याण करते हैं।



















त्रयंबकेश्वर जयोतिर्लिंग का इतिहास history of tryambkeshwar jyotirlinga temple

त्रयबकेश्वर ज्योतिर्लिंग - 

त्रयंवकेश्वर ज्योतिर्लिंग

   त्रयंवकेश्वर ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र के नासिक जिले में गोदावरी नदी के करीव स्थित है। इसके सबसे नजदीक ब्रम्हागिरी पर्वत है और इसी पर्वत से गोदावरी नदी निकलती है। प्राचीनकाल में यह स्थान गौतम ऋषि की तपोभूमि थी। अपने ऊपर लगे गोहत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए गौतम ऋषि ने कठोर तप कर भगवान शिव से मां गंगा को यहाँ अवतरित करने का वरदान मांगा था। फलस्वरूप दक्षिण की गंगा अर्थात गोदावरी नदी का उद्गम हुआ।  ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव के तीन नेत्र हैं इसीलिए उन्हैं त्रयंवकेश्वर भी कहा जाता है। इसी कारण इस मंदिर का नाम त्रयंवकेश्वर पड़ा है। धार्मिक शास्त्रों में शिव पुराण में भी मंदिर त्रयंवकेश्वर मंदिर का वर्णन मिलता है। यहां से ब्रम्हागिरी पर्वत पर जाने के लिए सात सौ सीड़ियां हैं। सीड़ियोंसे ऊपर जाने के मध्य में रामकुण्ड और लक्ष्मण कुण्ड हैं। ऊपर पहुंचने पर गो-मुख जो गोदावरी नदी के उद्गम स्थान है के दर्शन होते हैं।

मान्यता- 

  यह ज्योतिर्लिंग भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। इस मंदिर की विशेष बात यह है कि मंदिर के गर्भ गृह में प्रवेश करने पर लिंग नहीं वल्कि केवल आर्घा दिखाई देती है। ध्यान से देखने पर एक-एक इंच के तीन लिंग दिखाई देते हैं। इन्हीं तीन लिंगों को त्रिदेव व्रम्हा, विष्णु और शिव का प्रतीक माना गया है। इस स्थान पर तीनों देवों की पूजा संयुक्त रूप से की जाती है। भोर के समय की होने बाली पूजा के बाद इस आर्घा पर चांदी का मुकुट चढ़ा दीया जाता है। त्रयंबकेश्वर महाराज को इस गाँव का राजा माना जाता है। माना जाता है कि हर सोमवार को त्र्यंबकेश्वर के राजा अपनी प्रजा का हाल जानने के लिए नगर भ्रमण के लिए निकलते हैं। इस दौरान त्रयंकेश्वर महाराज की पालकी निकाली जाती है और कुशावर्त तीर्थ तक ले जायी जाती है और बाद में यहां बापिस लायी जाती है।
कुशावर्त तीर्थ के बारे में मान्यता है कि ब्रम्हागिरी पर्वत से गोदावरी नदी बार-बार लुप्त हो जाती थी। गोदावरी का पलायन रोकने के लिए गोतम ऋषि ने एक कुशा की मदद लेकर गोदावरी को बंदन में बांद दिया था, उसके बाद से इस कुण्ड में हमेशा पानी रहता है।

मंदिर का निर्माण- 

त्रयंवकेश्वर ज्योतिर्लिंग2


  कहा जाता है कि त्रयम्बकेश्वर महादेव का वर्तमान भवन 1755 से 1786 के बीच वाला जी बाजीराव नाना साहेब पेशवा ने बनवाया था। इस मंदिर को वनाने के लिए काले पत्थर का इस्तमाल किया गया है। यह मंदिर सिंधू-आर्य शैली का उत्कृष्ट नमूना है। इस मंदिर की नक्काशी वेहद सुंदर है। यह मंदिर अपने विशिष्ट आकार और खूबसूरत दृश्यावली के कारण पर्यटकों के आकषर्ण का केंद्र है। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर को बनवाने के लिए बहुत अधिक धन खर्च किया गया था। इस मंदिर को बनवाने के लिए 16 लाख रुपये  खर्च किए गए थे जो उस समय के हिसाव से बहुत ज्यादा थे।

पौराणिक कथा- 

  शिवपुराण में इस ज्योतिर्लिंग के संबंध में प्रचलित कथा के अनुसार एक बार महर्षि गौतम के तपोवन में रहने वाले ब्राह्मणों की पत्नियाँ किसी बात पर उनकी पत्नी अहिल्या से नाराज हो गईं। उन्होंने अपने पतियों को ऋषि गौतम का उपहास करने के लिए प्रेरित किया। उन ब्राह्मणों ने इस कार्य की पूर्ति के लिए भगवान श्रीगणेश जी की आराधना की।

   उनकी आराधना से प्रसन्न होकर श्री गणेशजी प्रकट हुए और उनसे वर मांगने को कहा। उन ब्राह्मणों ने कहा कि 'भगवन' यदि आप हम पर प्रसन्न हैं तो किसी प्रकार ऋषि गौतम को इस आश्रम से बाहर निकाल दें। उनकी यह बात सुनकर गणेशजी ने उन्हें ऐसा वर न मांगने के लिए समझाया किंतु वे नहीं माने।


त्रयंवकेश्वर मंदिर

  अंततः गणेशजी को विवश होकर उनकी बात माननी पड़ी। तब उन्होंने एक दुर्बल गाय का रूप धारण किया और ऋषि गौतम के खेत में जाकर फसल चरने लगे। गाय को फसल चरते देखकर गोतम ऋषि हाथ में तृण लेकर धीरे से उसे हांकने लगे। उन तृणों का स्पर्श होते ही वह गाय वहीं मरकर गिर पड़ी।

  ब्राह्मणों को इसी बात का इंतजार था। जैसे ही उन्है इस बात का पता चला सारे ब्राह्मण एकत्र होकर गो-हत्यारा कहकर ऋषि गौतम की भर्त्सना करने लगे। ऋषि गौतम इस घटना से बहुत आश्चर्यचकित और दुःखी थे। अब उन ब्राह्मणों ने उनका वहां रहना दूभर कर दिया। वे कहने लगे कि गो-हत्या के कारण तुमने हमारे बीच रहने का अधिकार खो दिया है। अब तुम्हैं वेद-पाठ और यज्ञादि के कार्य करने का कोई अधिकार नहीं रह गया है। अत: तुम्हैं यह स्थान छोड़कर किसी दूसरे स्थान पर चले जाना चाहिए। अंतत: अनुनय भाव से ऋषि गौतम ने उन ब्राह्मणों से गो-हत्या के पाप के प्रायश्चित का उपाय पूछा।

   तब उन्होंने कहा कि तुम अपने पाप को सबको बताते हुए तीन बार पूरी पृथ्वी की परिक्रमा पूरी करो। इसके बाद ब्रह्मगिरी पर्वत की 101 परिक्रमा करने के बाद तुम्हारी शुद्धि होगी अथवा यहां गंगाजी को यहां लाकर उनके जल से स्नान करके शिवजी की आराधना करो। इसके बाद पुनः गंगाजी में स्नान करके इस ब्रह्मगीरी पर्वत की 11 बार परिक्रमा करो। फिर सौ घड़ों से पवित्र जल से पार्थिव शिवलिंग को स्नान कराने से तुम्हारा उद्धार होगा।

            त्रयंवकेश्वर मंदिर2

  ब्राह्मणों के कहे अनुसार महर्षि गौतम वे सारे कार्य पूरे किए और पत्नी के साथ भगवान शिव की आराधना करने लगे। उनकी अअराधना से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने प्रकट हुए और उनसे वर माँगने को कहा। महर्षि गौतम ने उनसे कहा कि 'भगवन' यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो आप मां गंगा को यहां अवतरित करें और मुझे गो-हत्या के पाप से मुक्त कर दें। भगवान शिव ने कहा कि तुम सर्वथा निष्पाप हो। तुमने कोई पाप नहीं किया है, गो-हत्या का अपराध तुम पर छल पूर्वक लगाया गया था। अगर तुम चाहो तो छल पूर्वक ऐसा करवाने वाले तुम्हारे आश्रम के ब्राह्मणों को मैं दण्ड देना चाहता हूं।

   इस पर महर्षि गौतम ने कहा कि 'भगवन' उन्हीं के कारण तो मुझे आपका दर्शन प्राप्त हुआ है। अब उन्हें मेरा परमहित समझकर उन पर आप क्रोध न करें। तब बहुत से ऋषियों, मुनियों और देव गणों ने वहां एकत्र हो गौतम ऋषि के साथ मिलकर लोक कल्याण के लिए भगवान शिव से सदा वहां निवास करने की प्रार्थना की। वे उनकी बात प्रसन्न हुए और वहां त्रयंम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग के नाम से स्थापित हो गए। गौतमजी के अनुरोध पर लाई गई गंगा जी भी वहां पास में गोदावरी के नाम से प्रवाहित होने लगीं। तब से यह ज्योतिर्लिंग त्रयंवकेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुआ।







ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग का इतिहास, history of Omkareshwar jyotirlinga.

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग- 

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग

  ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मध्य प्रदेश के खण्डवा जिले में स्थित है। यह ज्योतिर्लिंग भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों मे से एक है। जिस स्थान पर यह ज्योतिर्लिंग स्थित है, उस स्थान पर नर्मदा नदी बहती है और पहाड़ी के चारों ओर नदी बहने से यहां ऊं का आकार बनता है। ऊं शब्द की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से हुई है इसका उच्चारण सबसे पहले ब्रह्मा ने किया था। किसी भी धार्मिक शास्त्र या वेदों का पाठ ऊं के उच्चारण के विना नहीं किया जाता। यह ज्योतिर्लिंग ऊं का आकार लिए हुए है, इस कारण इसे ओंकारेश्वर नाम से जाना जाता है। यहां इस ज्योतिर्लिंग के दो स्वरूप हैं एक ओंकारेश्वर और दूसरा ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग है। इन दोनों ज्योतिर्लिंगों की सत्ता और स्वरूप एक ही है।

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग की कहानी - 

ओंकारेश्वर मंदिर

  एक बार नारायण भक्त ऋषि नारद मुनि घूमते हुए गिरिराज विंध्य पर्वत पर पहुँच गये। विंध्य पर्वत ने बड़े आदर-सम्मान के साथ उनका स्वागत और पूजा की। वह कहने लगे कि मैं सर्वगुण सम्पन्न हूं, मेरे पास हर प्रकार की सम्पदा है, किसी प्रकार की कोई कमी नहीं है। इस प्रकार के अहंकारी भाव को मन में लेकर विन्ध्याचल नारद जी के समक्ष खड़े हो गये। अहंकारनाशक श्री नारद जी विन्ध्याचल के अहंकार का नाश की सोची।
  नारद जी ने विन्ध्याचल को बताया कि तुम्हारे पास सब कुछ है, किन्तु मेरू पर्वत तुमसे बहुत ऊँचा है। उस पर्वत के शिखर देवताओं के लोकों तक पहुँचे हुए हैं। मुझे लगता है कि तुम्हारे शिखर वहाँ तक कभी नहीं पहुँच पाएंगे। इस प्रकार कहकर नारद जी वहां से चले गए। उनकी बात सुनकर विन्ध्याचल को बहुत पछतावा और दुख हुआ। उसने उसी समय निर्णय किया कि अब वह भगवान शिव की आराधना और तपस्या करेगा। इस प्रकार विचार करने के बाद वह मिट्टी का शिवलिंग बनाकर भगवान शिव की कठोर तपस्या करने लगा। कई माह की कठोर तपस्या के बाद भगवान शिव उसकी तपस्या से प्रसन्न हो गये। उन्होंने विन्ध्याचल को साक्षात दर्शन दिए और आशीर्वाद दिया। भगवान शिव ने प्रसन्नतापूर्वक विन्ध्याचल से कोई वर मांगने के लिए कहा। विन्ध्य पर्वत ने कहा कि भगवन यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो हमारे कार्य की सिद्धि करने वाली अभीष्ट बुद्धि हमें प्रदान करें। विन्ध्यपर्वत की याचना को पूरा करते हुए भगवान शिव ने विन्ध्य को वर दे दिया। उसी समय देवतागण तथा कुछ ऋषिगण भी वहाँ आ गये। उन्होंने भी भगवान शिव जी की विधिवत पूजा और उनकी स्तुति करने के बाद उनसे जन कल्याण के लिए हमेशा के लिए यहाँ स्थिर होकर निवास करने की प्रार्थना की। देवताओं की बात से भगवान शिव को बड़ी प्रसन्नता हुई। शिव ने उन ऋषियों तथा देवताओं के अनुरोध को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लिया।

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग 1

  देवताओं और ऋषियों के अनुरोध पर वहाँ स्थित ज्योतिर्लिंग दो स्वरूपों में विभक्त हो गया। एक प्रणव लिंग ओंकारेश्वर और दूसरा पार्थिव लिंग ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग के नाम से विख्यात हुये। इस प्रकार भक्तों का कल्याण करने वाले ओंकारेश्वर और ममलेश्वर नाम से शिव के ये ज्योतिर्लिंग जगत में प्रसिद्ध हुए।

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग के बारे में प्रचलित एक अन्य कथा -

  भगवान शिव के अन्नय भक्त सूर्यवंशी राजा मान्धाता ने इस स्थान पर कठोर तपस्या करके भगवान शंकर को प्रसन्न किया था। राजा मान्धाता ने भगवान शिव से प्रार्थना की कि वह जन कल्याण के लिए उस स्थान पर स्थाई रूप से निवास करें। भगवान शिव ने राजा की प्रार्थना को स्हर्ष स्वीकार कर लिया और वहां पर शिवलिंग के रूप में स्थापित हुए। उस शिव भक्त राजा मान्धाता के नाम पर ही इस पर्वत का नाम मान्धाता पर्वत पड़ा।
ओंकारेश्वर मंदिर 1

  ओंकारेश्वर लिंग किसी मनुष्य के द्वारा तराशा या बनाया हुआ नहीं है, बल्कि यह प्राकृतिक शिवलिंग है। इसके चारों ओर हमेशा जल भरा रहता है। अकसर किसी मन्दिर में लिंग की स्थापना गर्भ गृह के मध्य में की जाती है और उसके ठीक ऊपर शिखर होता है, किन्तु यह ओंकारेश्वर लिंग मन्दिर के गुम्बद के नीचे नहीं है। इसकी विशेषता यह है कि मन्दिर के ऊपरी शिखर पर भगवान भोलेशंकर की मूर्ति है। यहां 68 तीर्थ हैं और ऐसा माना जाता है कि 33 करोड़ देवता यहां परिवार सहित निवास करते हैं।

मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की कहानी


मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग -


मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग 1

  यह ज्योतिर्लिंग आन्ध्र प्रदेश में कृष्णा नदी के तट पर श्रीशैल नाम के पर्वत पर स्थित है। इस मंदिर का महत्व भगवान शिव के कैलाश पर्वत के समान कहा गया है। इस पर्वत को दक्षिण भारत का कैलाश भी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि यहां आकर शिवलिंग की पूजा-अर्चना करने वाले भक्तों की सभी सात्विक मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। भगवान शिव की भक्ति मनुष्य को मोक्ष के मार्ग पर ले जाने वाली है।
   धार्मिक शास्त्र 12 प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंगों में शामिल इस ज्योतिर्लिंग के धार्मिक और पौराणिक महत्व की व्याख्या करते हैं। कहते हैं कि इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने मात्र से ही व्यक्ति को उसके सभी पापों से मुक्ति मिलती है

मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की स्थापना की कहानी-

           मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग

  पुराणों में विशेषकर महाभारत, शिवपुराण और पद्म पुराण में इस ज्योतिर्लिंग की महिमा का वर्णन मिलता है। पौराणिक कथा के अनुसार भगवान शंकर जी के दोनों पुत्रों श्री गणेश और श्री स्वामी कार्तिकेय में इस बात को लेकर विवाद हो गया कि पहले विवाह किसका होगा। जब दोनों से इस विवाद का हल नहीं निकला तो दोनों भगवान शिव और माता पार्वती अपना अपना मत लेकर पहुंचे। प्रत्येक का आग्रह था कि मेरा विवाह पहले किया जाए। उन्हें लड़ते-झगड़ते देखकर भगवान शंकर और मां पार्वती ने उन्हैं समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन सफलता नहीं मिली। जब दोनों नहीं माने तो भगवान शिव और माता पार्वती ने विवाद सुलझाने का एक उपाय निकाला और उनसे कहा कि तुम दोनों में से जो पहले पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाकर यहां वापस लौट आएगा उसी का विवाह पहले किया जाएगा।

  माता-पिता से विवाद का हल पाकर दोनों को बहुत प्रसन्नता हुई। श्री स्वामी कार्तिकेय का वाहन मयूर है इसलिए वह तो तुरंत कार्य पूरा करने के लिए दौड़ पड़े लेकिन गणेश जी के लिए तो यह कार्य बड़ा ही कठिन था क्योंकि एक तो उनकी काया स्थूल थी, दूसरे उनका वाहन भी मूषक था जो कि बहुत धीमी गति से चलने वाला प्राणी है। भला वह दौड़ में स्वामी कार्तिकेय को किस प्रकार हरा पाते? लेकिन उनकी काया जितनी स्थूल थी, बुद्धि उससे कहीं अधिक तेज थी। उन्होंने प्रयोगिता जीतने का एक सरल उपाय खोज निकाला।

  उन्हैं यह बात भली भांति पता थी कि शास्त्रों में माता पिता को पृथ्वी के समान बताया गया है। शास्त्रों का अनुसरण करते हुए उन्होंने सामने बैठे माता-पिता का पूजन करने के पश्चात उनकी प्रदीक्षणा करनी प्रारंभ कर दी। इस प्रकार उन्होंने पृथ्वी-प्रदक्षिणा का कार्य पूरा कर लिया। उनका यह कार्य शास्त्रों के अनुसार उचित था इसलिए शर्त के अनुसार माता पिता ने गणेश जी का विवाह रिद्धि और सिद्धि नाम की दो कन्याओं से कर दिया।

            मल्लिकार्जुन मंदिर

  पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाकर स्वामी कार्तिकेय जब लौटे तो उन्होंने देखा कि गणेश जी का विवाह हो चुका था और वह शर्त हार चुके हैं। गणेश की बुद्धिमानी और चतुराई देखकर स्वामी कार्तिकेय नाराज हो गए और श्री शैल पर्वत पर चले गए। पुत्र मोह के कारण माता पार्वती वहां उन्हें मनाने पहुंचीं। पीछे से शंकर भगवान भी वहां पहुंचकर ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए और तब से मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध हुए। यहां पर मल्लिका शब्द माता पार्वती और अर्जुन भगवान शिव का वाचक है।

दूसरी कथा -


  श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की स्थापना के बारे में एक दूसरी कथा भी प्रचलित है। इस कथा के अनुसार इस शैल पर्वत के नजदीक किसी समय राजा चंद्रगुप्त की राजधानी हुआ करती थी। उनकी राजकन्या किसी विपत्ति में उलझ गई थी। विपत्ति विशेष के निवारण हेतू वह कन्या राजा के महल को छोड़ पर्वतराज की शरण में पहुंच गई और वहां पर आश्रम बनाकर रहने लगी। वह ग्वालों के साथ कंद-मूल खाकर और दूध पीकर जीवन यापन करती थी। उस कन्या के पास एक बड़ी ही सुंदर श्यामा गाय थी। लेकिन कोई व्यक्ति छिपकर रोज रात को उसका दूध दुह कर ले जाता था। एक दिन संयोगवश उस राज कन्या ने चोर को दूध दोहते देख लिया और क्रुद्ध होकर उस चोर की ओर दौड़ी, किंतु गाय के पास पहुंचकर उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। उसे वहां शिवलिंग के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं दिया। राजकुमारी ने कुछ समय पश्चात उस शिवलिंग पर एक विशाल मंदिर का निर्माण करवाया। यही शिवलिंग मल्लिकार्जुन के नाम से प्रसिद्ध है।

भीमा शंकर जयोतिर्लिंग का इतिहास


भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग-


                  श्र भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग

  बारह ज्योतिर्लिंगों में भीमाशंकर का स्थान छठा है। यह ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र के पूणे के सहाद्रि नामक पर्वत पर स्थित है। कहते हैं जो भी व्यक्ति प्रतिदिन प्रात: काल इस ज्योतिर्लिंग के श्लोकों का पाठ करता है वह सात जन्मों तक के पापों से मुक्त हो जाता है।

   भीमशंकर मंदिर बहुत ही प्राचीन है। भीमशंकर मंदिर से पहले ही शिखर पर देवी पार्वती का एक मंदिर है। इसे कमला जी मंदिर कहा जाता है। मान्यता है कि इसी स्थान पर देवी ने राक्षस त्रिपुरासुर से युद्ध में भगवान शिव की सहायता की थी। युद्ध के बाद भगवान ब्रह्मा ने देवी पार्वती की कमलों से पूजा की थी।

  भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग की स्थापना-


                  श्री भीमाशंकर मंदिर

   कहा जाता है कि कुंभकर्ण का भीम नाम का एक महाबलशाली और पराक्रमी राक्षस पुत्र था। कुंभकर्ण को कर्कटी नाम की एक महिला पर्वत पर मिली थी। उसे देखकर कुंभकर्ण उस पर मोहित हो गया और उससे विवाह कर लिया। विवाह के बाद कुंभकर्ण लंका लौट आया, लेकिन कर्कटी पर्वत पर ही रही। कुछ समय बाद कर्कटी ने भीम नाम के पुत्र को जन्म दिया। जब श्रीराम ने कुंभकर्ण का वध कर दिया तो कर्कटी ने अपने पुत्र को देवताओं के छल से दूर रखने का फैसला किया।

  राक्षस भीम बड़ा ही दुराचारी और अत्याचारी था। बड़ा होने पर जब उसे अपनी माता से अपने पिता की मृत्यु का कारण पता चला तो उसने देवताओं को सबक सिखाने का निश्चय कर लिया। भीम ने अपनी शक्ति और बढा़ने के लिए घोर तपस्या की और ब्रह्मा जी से परम् शक्तिशाली होने का वरदान प्राप्त कर लिया। इसके बाद अपनी ताकत के नशे में चूर उसने देवताओं से युद्ध करना शुरू कर दिया। इस दौरान उसने कई देवताओं को हरा दिया और देव लोक से देवताओं को भागने पर विवश कर दिया। राक्षस के अत्याचारों से हर जगह त्राहि -त्राहि मच गई। सभी देवता भगवान शिव के पास गए और राक्षस के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। भगवान शिव ने उन्हैं आश्वासन दिया और कहा कि जल्दी ही राक्षस का अंत कर दिया जाएगा। उधर देवलोक को जीतने के बाद राक्षस ने पूरी पृथ्वी को जीतने का निर्णय किया। इसी दौरान उसने कामरूप के सुदक्षिण नाम के राजा जो कि भगवान शिव का परम भक्त था पर आक्रमण कर दिया और उसे हराकर करागार में बंद कर दिया। राजा भगवान शिव का भक्त था और रोज पूजा पाठ करता था। कारागार में भी राजा भगवान शिव का शिवलिंग बनाकर नित्य पूजा करता और शिव की भक्ति में लीन रहता था। राजा के पूजा पाठ करने का नतीजा यह हुआ कि अन्य कैदी जो राजा के साथ बंद थे वो भी शिव के भक्त वन गए और पूजा पाठ करने लगे।

                 श्री भीमाशंकर मंदिर 1

   यह बात जब राक्षस भीम को पता चली तो वह बहुत क्रोधित हुआ और राजा को भगवान शिव की पूजा छोड़ उसकी पूजा करने को कहा। परंतु जब भीम के कहने पर भी राजा ने भगवान शिव का पूजा पाठ करना बंद नहीं किया तो उसने राजा को मारने का निर्णय कर लिया। भीम ने कारागार में जाकर राजा को मारने के लिए जैसे ही तलवार चलाई तो शिवलिंग में से स्वयं भगवान शिव प्रकट हो गए। भगवान शिव और भीम के बीच घोर युद्ध हुआ, जिसमें भीम की मारा गया। फिर राजा और देवताओं ने भगवान शिव से हमेशा के लिए उसी स्थान पर रहने की प्रार्थना की। भोलेनाथ ने उनके आग्रह को स्वीकार किया और शिव लिंग के रूप में उसी स्थान पर स्थापित हो गए। इस स्थान पर भीम को मारने की वजह से इस ज्योतिर्लिंग का नाम भीमाशंकर पड़ गया।

कई कुंड हैं यहां-


  यहां के मुख्य मंदिर के पास मोक्ष कुंड, सर्वतीर्थ कुंड, ज्ञान कुंड, और कुषारण्य कुंड भी स्थित है। इनमें से मोक्ष नामक कुंड को महर्षि कौशिक से जुड़ा हुआ माना जाता है और कुशारण्य कुंड से भीम नदी का उद्गम माना जाता है।

















बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का इतिहास, history

बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग-

बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग

  भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक पवित्र वैद्यनाथ शिवलिंग झारखंड के देवघर में स्थित है। इस जगह को लोग बाबा बैजनाथ धाम के नाम से भी जानते हैं। कहते हैं भोलेनाथ यहां आने वाले की सभी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। इसलिए इस शिवलिंग को कामना लिंग भी कहते हैं। बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग में कावड़ चढ़ाने का बहुत महत्व है। भक्तजन सुल्तान गंज से गंगाजल लेकर 106 कि.मी. की पैदल यात्रा करके देवधर तक बैद्यनाथ धाम की यात्रा करते है।

बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की कहानी- 

श्री बैद्यनाथ धाम मंदिर

  बाबा बैजनाथ की स्थापना से संबंधित एक बड़ी ही रोचक कथा शिवपुराण में वर्णित है। शिव पुराण के अनुसार यह ज्योतिर्लिंग रावण द्वारा यहां लाया गया था। यह तो सब जानते हैं कि रावण भगवान शिव का बहुत बड़ा भक्त था। एक बार वह भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कैलाश पर जाकर घोर तपस्या करने लगा। वर्षों की तपस्या के बाद भगवान शिव प्रसन्न होकर रावण के समक्ष प्रकट हुए और रावण से वरदान मांगने के लिए कहा। रावण ने कहा कि आप सशरीर मेरे साथ चलें और कैलाश छोड़कर लंका में निवास करें। भगवान शिव ने कहा कि ऐसा संभव नहीं है, तुम चाहो तो मेरा शिवलिंग ले जा सकते हो। यह शिवलिंग साक्षात मेरा ही स्वरूप होगा। लेकिन इसे मार्ग में कहीं मत रखना क्योंकि इसे जहां रखोगे यह वहीं स्थापित हो जाएगा। 

   रावण को अपने बाहुवल पर बहुत घमंण्ड था। उसने सोचा कि वह शिवलिंग को आसानी से लंका पहुंचा कर स्थापित कर देगा। इसलिए उसने भगवान शिव की यह बात स्हर्ष मान ली। रावण प्रसन्न होकर शिवलिंग को साथ लिये लंका की ओर चल पड़ा। देवताओं को इससे चिंता होने लगी कि शिव की कृपा मिल जाने से रावण और अत्याचारी बन जाएगी। सभी देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास गए और इस समस्या का हल करने की प्रार्थना की। तब भगवान विष्णु और देवताओं ने मिलकर एक चाल चली जिससे रावण शिवलिंग को साथ नहीं ले जा सके। देवताओं के अनुरोध पर गंगा रावण की पेट में समा गयी। इससे रावण को तेज लघुशंका लग गयी।

काबड़ यात्रा

  शिवलिंग को हाथ में लेकर लघुशंका करना उसे उचित नहीं लगा। इसने अपने चारों ओर देखा तो एक वालक नज़र आया। रावण ने उस वालक से कहा कि शिवलिंग को पकड़ कर रखे वह लघुशंका से निवृत होकर आता है। रावण ने वालक को यह निर्देश दिया कि वह शिवलिंग को भूमि पर न रखे। रावण जब लघुशंका करने लगा तब उसकी लघुशंका से एक तालाब बन गया लेकिन रावण की लघुशंका समाप्त नहीं हुई। 

  वालक के रूप में मौजूद भगवान विष्णु ने रावण से कहा कि बहुत देर हो गयी है मैं अब शिवलिंग उठाए खड़ा नहीं रह सकता। इतना कहकर वालक ने शिवलिंग को भूमि पर रखा और अंतर्ध्यान हो गया। जमीन से स्पर्श हो जाने से शिवलिंग बहीं स्थापित हो गया। रावण जब लघुशंका समाप्त होने पर बापिस आया तो शिवलिंग को जमीन पर रखा देखकर बहुत क्रोधित हुआ। लेकिन वह कुछ नहीं कर सकता था। रावण ने शिवलिंग को भूमि से उठाने का बहुत प्रयास किया लेकिन रावण के लाख प्रयास के बावजूद शिवलिंग वहां से हिला तक नहीं। 

                  श्री बैद्यनाथ धाम

  इससे क्रोधित होकर रावण ने शिवलिंग के ऊपर अपने पैर से प्रहार किया जिससे शिवलिंग भूमि में और समा गया। अंत में रावण को शिवलिंग को उसी स्थान पर छोड़कर लंका जाना पड़ा। बाद में कई बर्षों के बाद यह शिवलिंग बैजू नाम के एक चरवाहे को मिला। इसी चरवाहे के नाम से रावण द्वारा स्थापित शिव का यह ज्योर्तिलिंग बैजनाथ ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग, द्वारका का इतिहास

 श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग- 

श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग

   श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग गुजरात के द्वारका पुरी से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। नागेश्वर का यह ज्योतिर्लिंग भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। इसके अतिरिक्त नागेश्वर नाम से दो अन्य शिवलिंगों की भी चर्चा ग्रन्थों में है। मतान्तर से इन लिंगों को भी कुछ लोग नागेश्वर ज्योतिर्लिंग कहते हैं। इनमें से एक नागेश्वर ज्योतिर्लिंग निजाम हैदराबाद, आन्ध्र प्रदेश में हैं, जबकि दूसरा उत्तराखंड के अल्मोड़ा में जागेश्वर शिवलिंग के नाम से प्रसिद्ध है। यद्यपि शिव पुराण के अनुसार समुद्र के किनारे द्वारका पुरी के पास स्थित शिवलिंग ही ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रमाणित होता है। 
   धर्म शास्त्रों में भगवान शिव को नागों का देवता कहा जाता है। भगवन शिव का एक अन्य नाम नागेश्वर भी है। इस लिए इस ज्योतिर्लिंग को नागेश्वर जयोतिर्लिंग कहा जाता है।


नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की कहानी- 

श्री नागेश्वर मंदिर

    शिव पुराण के अनुसार एक धर्म- कर्म में विशवास करने वाला सुप्रिय नाम का व्यापारी था। वह भगवान शिव जी का अन्नय भक्त था। अपने व्यापारिक कार्यों के बाद जो भी समय बचता उसे वह ध्यान और शिव भगवान की अराधना में लगाता था। उसकी शिव भक्ति देखकर दारूक नाम का एक बलशाली राक्षस उससे बहुत नाराज था। वह इस अबसर के इंतजार में रहता कि किस तरह वह व्यापारी की शिव भक्ति में वाधा पहुंचाए।  एक बार वह व्यापारी किसी व्यापारिक कार्य से नौका पर सवार होकर समुद्री रास्ते से कहीं जा रहा था। उसी समय राक्षस ने मौका पाकर नौका पर आक्रमण कर दिया। राक्षस दारूक ने सभी लोगों के साथ सुप्रिय का अपहरण कर लिया और अपनी राजधानी ले जाकर बन्दी बना लिया।

   चूंकि सुप्रिय शिव जी का अनन्य भक्त था, इसलिए वह हमेशा शिव जी की आराधना में लीन रहता था। कारागार में भी उसकी आराधना बन्द नहीं हुई और उसने अपने अन्य साथियों को भी शंकर जी की आराधना के प्रति जागरूक कर दिया। वे सभी शिवभक्त बन गये। जब इसकी सूचना राक्षस दारूक को मिली तो वह बहुत क्रोधित हुआ। जब उसने देखा कि कारागार में सुप्रिय ध्यान लगाए बैठा है, तो उसे ऊंची आवाज में डराना- धमकाना  शुरू कर दिया ।

श्र नागेश्वर ज्योतिर्लिंग 1

    वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाता हुआ धमकाता रहा, लेकिन इसका सुप्रिय पर कुछ भी असर नही पड़ा। तब घमंडी राक्षस दारूक ने अपने सैनिकों को सुप्रिय को मार डालने का आदेश दिया। अपनी हत्या के भय से भी सुप्रिय डरा नहीं वल्कि वह भगवान शिव से अपनी और अपने साथियों की मुक्ति के लिए प्रार्थना करने में लगा रहा। भगवान शिव व्यापारी की भक्ति और आस्था देखकर प्रसन्न हुए और कारागार में ही शिवलिंग के रूप में प्रकट हुए और उसे दर्शन दिए। भगवान शिव जी ने अपने पाशुपतास्त्र से सभी राक्षसों का नाश किया और अपने भक्त के प्रार्थना करने पर लोक के कल्याण के लिए वहीँ शिवलिंग रूप में स्थापित हो गए।
    उसी समय से भगवान शिव का यह शिवलिंग नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ऐसा माना जाता है कि जो मनुष्य इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने के बाद उसकी उत्पत्ति और माहात्म्य सम्बन्धी कथा सुनता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। 

रामेश्वरम जयोतिर्लिंग का इतिहास


रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग- 

रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग

 रामेश्वरम का यह ज्योतिर्लिंग भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक होने के साथ-साथ हिंदुओं के चार धामों में से एक भी है। इस ज्योतिर्लिंग के विषय में यह मान्यता है कि इसकी स्थापना स्वयं भगवान श्रीराम ने की थी। भगवान राम के द्वारा स्थापित होने के कारण ही इस ज्योतिर्लिंग का नाम भगवान श्री राम के नाम पर रामेश्वरम पड़ा।
  रामेश्वरम का यह ज्योतिर्लिंग तमिलनाडु राज्य के रामनाथपुरम जिले के मन्नार की खाड़ी में स्थित है। यह स्थान हिंदमहासागर और बंगाल की खाड़ी से चारों ओर से घिरा हुआ एक सुंदर शंख आकार का द्धीप है।
  बताया जाता है, कि बहुत पहले मन्नार द्वीप तक लोग पैदल चलकर भी जाते थे, लेकिन 1480 ई में एक चक्रवाती तूफान ने इस रास्ते को तोड़ दिया। जिस स्थान पर यह टापु मुख्य भूमि से जुड़ा हुआ था, वहां इस समय ढाई मील चौड़ी एक खाड़ी है। शुरू में इस खाड़ी को नावों से पार किया जाता था। बाद में आज से लगभग चार सौ वर्ष पहले कृष्णप्पनायकन नाम के एक राजा ने उस स्थान पर पत्थर का बहुत बड़ा पुल बनवाया।
  अंग्रेजो के आने के बाद उस पुल की जगह पर एक जर्मन इंजीनियर की मदद से रेल का सुंदर पुल बनबाया गया। उस समय तक पुराना पत्थर का पुल लहरों की टक्करों से टूट चुका था। इस समय यही पुल रामेश्वरम् को शेष भारत से रेल सेवा द्वारा जोड़ता है।

मान्यता- 

 ऐसा माना जाता है कि रामेश्वरम मंदिर में स्थापित ज्योतिर्लिंग का पवित्र गंगा जल से जलाभिषेक करने का बहुत अधिक महत्व है। मान्यता तो यह भी है कि रामेश्वरम में भगवान शिव की विधिवत पूजा करने पर ब्रह्महत्या जैसे दोष से भी मुक्ति मिल जाती है। रामेश्वरम को दक्षिण भारत का काशी माना जाता है क्योंकि यह स्थान भी भगवान शिव और प्रभु श्री राम की कृपा से मोक्षदायी है।

रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग का इतिहास-  

श्री रामेश्वरम मंदिर

  पौराणिक ग्रंथों में रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग के इतिहास के बारे में रामायण काल से जुड़ी दो अलग-अलग कहानियां प्रचलित हैं । एक जब भगवान श्री राम ने लंका पर चढ़ाई की तो विजय प्राप्त करने के लिये उन्होंनें समुद्र के किनारे शिवलिंग बनाकर भगवान शिव की पूजा की थी। इससे प्रसन्न होकर भगवान भोलेनाथ ने श्री राम को विजयी होने का आशीर्वाद दिया था। आशीर्वाद मिलने के साथ ही श्री राम ने अनुरोध किया कि वे जनकल्याण के लिये सदैव इस ज्योतिर्लिंग रूप में यहां निवास करें। उनकी इस प्रार्थना को भगवान शंकर ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
  इसके अलावा ज्योतिर्लिंग की स्थापना की एक दूसरी कहानी भी है। इसके अनुसार जब भगवान श्री राम लंका पर विजय प्राप्त कर लौट रहे थे तो उन्होंनें गंधमादन पर्वत पर विश्राम किया वहां पर ऋषि मुनियों ने श्री राम को बताया कि उन पर ब्रह्महत्या (रावण और उसके कुल जो कि ऋषि पुलस्त्य के कुल से थे की हत्या) का दोष है जो शिवलिंग की पूजा करने से ही दूर हो सकता है।

रामेश्वरम मंदिर

  इसके लिये भगवान श्री राम ने हनुमान से शिवलिंग लेकर आने की बात कही। हनुमान तुरंत कैलाश पर्वत पर पहुंचे लेकिन वहां उन्हें भगवान शिव नजर नहीं आये। अब हनुमान भगवान शिव के लिये तप करने लगे। अंतत: भगवान शिव ने हनुमान की पुकार को सुना और हनुमान ने भगवान शिव से आशीर्वाद सहित शिवलिंग प्राप्त किया । लेकिन तब तक बहुत समय बीत चुका था। ऋषि-मनियों ने भगवान श्री राम से शिवलिंग की स्थापना का मुहूर्त निकल जाने की चिंता जाहिर की। मुहूर्त निकल जाने के भय से माता सीता ने बालु (रेत) से ही विधिवत रूप से शिवलिंग का निर्माण कर श्री राम को सौंप दिया जिसे उन्होंनें मुहूर्त के समय स्थापित कर दिया। जब हनुमान वहां पहुंचे तो देखा कि शिवलिंग तो पहले ही स्थापित हो चुका है इससे उन्हें बहुत बुरा लगा। भगवान श्री राम ने भक्त हनुमान की भावनाओं को समझते हुए उन्हैं समझाया लेकिन वे संतुष्ट नहीं हुए। तब श्री राम ने कहा कि अगर तुम स्थापित शिवलिंग को यहां से हटा दो तो मैं इस शिवलिंग की स्थापना इस स्थान पर कर दूंगा । लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी हनुमान ऐसा न कर सके और अंतत: मूर्छित होकर गंधमादन पर्वत पर जा गिरे होश में आने पर उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ तो श्री राम ने हनुमान द्वारा लाये शिवलिंग को भी नजदीक ही स्थापित किया और उसका नाम हनुमदीश्वर रखा। 


रामसेतु के बारे में मान्यता– 

राम सेतू

  कहा जाता है कि रामेश्वरम मंदिर के पास ही सागर में लंका पर चढ़ाई करने से पहले भगवान राम ने वानर सेना की मदद से राम सेतु का निर्माण किया था। जिस पर चलकर भगवान श्री राम ने वानर सेना साथ लंका पर चढाई की थी। लेकिन लंका पर विजय प्राप्त करने के बाद जब विभीषण को सिंहासन सौंपा गया तो विभिषण के अनुरोध पर धनुषकोटि नामक स्थान पर इस सेतु को तोड़ दिया गया। आज भी लगभग 48 किलोमीटर लंबे इस सेतु के अवशेष देखने को मिलते हैं।

मंदिर के अंदर चमत्कारिक कूंए- 

 मंदिर के अंदर ही 24 चमत्कारिक कुएं हैं जिन्हें तीर्थ भी कहा जाता है। इनके बारे में मान्यता है कि इन्हें प्रभु श्री राम ने अपने अमोघ बाण से बनाकर उनमें तीर्थस्थलों से पवित्र जल मंगवाया था। यही कारण है कि इन कुओं का जल मीठा है। कुछ कुएं मंदिर के बाहर भी हैं लेकिन उनका जल खारा है। इन चौबीस कुओं के नाम भी देश भर के प्रसिद्ध तीर्थों व देवी देवताओं के नाम पर रखे गए हैं।

काशी विश्वनाथ ज्यातिर्लिंग का इतिहास


काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग -

काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग

    विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह उत्तर प्रदेश के वाराणसी जनपद के काशी नामक स्थान पर स्थित है। काशी सभी धर्म स्थलों में सबसे अधिक महत्व रखती है। इस स्थान की मान्यता है, कि प्रलय आने पर भी यह स्थान बना रहेगा। इसकी रक्षा के लिए भगवान शिव इस स्थान को अपने त्रिशूल पर धारण करेंगे। मंदिर के ऊपर के सोने के छत्र को ले कर यह मान्यता है कि अगर उसे देख कर कोई मुराद मांगी जाती है तो वह अवश्य ही पूरी होती है। यहां शिव लिंग काले पत्थर का बना हुआ है। इसके अलावा दक्षिण की तरफ़ तीन लिंग हैं, जिन्हें मिला कर नीलकंठेश्वर कहा जाता है।

काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग का निर्माण-

काशी विश्वनाथ मंदिर

पुराणों, उपनिषद से लेकर बहुत सी प्राचीन किताबों में इस शहर का ज़िक्र मिलता है। काशी शब्द की उत्पत्ति कश से हुई है, जिसका अर्थ होता है चमकना। मान्यता है कि अनादि काल से भगवान शिव यहां विराजमान हैं। धर्म ग्रंथों में महाभारत काल से भी पहले का बर्णन मिलता है। ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव ने एक भक्त को सपने में दर्शन दिए और कहा था कि गंगा नदी में स्नान करने के बाद उसे दो शिवलिंग मिलेंगे, वह जब दोनों शिवलिंगों को मिलाकर स्थापित करेगा तो शिव और शक्ति के दिव्य शिवलिंग की स्थापना होगी। तभी से भगवान शिव यहां मां भगवती के संग विराजमान हैं। इतिहास में काशी विश्वनाथ मंदिर के निर्माण का समय 1490 बताया जाता है।

काशी विश्वनाथ मंदिर1

काशी में बहुत से शासकों ने शासन किया, जिनमें से कई बहुत नामी रहे। इस शहर पर बौद्धों ने भी काफ़ी वर्षों तक शासन किया है। गंगा किनारे बसा यह शहर कई बार तबाही और निर्माण का साक्षी बना है, जिसका असर काशीनाथ मंदिर पर भी पड़ा। इस मंदिर को बहुत बार तोड़ा और बनाया जा चुका है। मुगल शासन के दौरान मुगल बादशाह औरंगजेब ने मंदिर को नष्ट करके मस्जिद का निर्माण करने की कोशिश की थी, जिसके सबूत आज भी विद्यामान हैं। मंदिर की पश्चिमी दीवार पर मस्जिद के लिए की गई नक्काशी को साफ देखा जा सकता है ।

काशी विश्वनाथ मंदिर की बर्तमान संरचना जो आज यहां दिखाई देती है को रानी अहिल्या बाई होलकर ने 18वीं शताव्दी में बनबाया था। रानी अहिल्या बाई भगवान शिव की बहुत भक्त थी । उन्होंने सवप्न से प्रेरित होकर मंदिर का निर्माण 1777 में करबाया था। बाद में महाराजा रणजीत सिंह द्वारा 1853 में शुद्ध सोने का कलश (शिखर) बनवाया गया ।

मान्यता-

काशी विश्वनाथ मंदिर2

शिव पुराण के अनुसार रोग ग्रस्त स्त्री या पुरुष, युवा हो या प्रौढ़, मोक्ष की प्राप्ति के लिए यहां आते हैं। ऐसा मानते हैं कि यहां पर आने वाला हर श्रद्धालु भगवान विश्वनाथ को अपनी इच्छा समर्पित करता है। काशी क्षेत्र में मरने वाले किसी भी प्राणी को निश्चित ही मुक्ति प्राप्त होती है। कहते हैं जब कोई यहां मर रहा होता है उस समय भगवान श्री विश्वनाथ उसके कानों में तारक मंत्र का उपदेश देते हैं जिससे वह जन्म-मरण के चक्कर से अर्थात इस संसार से मुक्त हो जाता है ।

जय बाबा विश्वनाथ जी

केदारनाथ ज्योतिर्लिंग का इतिहास

केदारनाथ ज्योतिर्लिंग- 

केदारनाथ मंदिर

  केदारनाथ स्थित ज्योतिर्लिंग भगवान शिव के 12 प्रमुख ज्योतिर्लिंगों में आता है। यह उत्तराखंड राज्य के रूद्रप्रयाग जिले में स्थित है। बाबा केदारनाथ का यह मंदिर समुद्र तल से 3584 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। केदारनाथ का वर्णन स्कन्द पुराण एवं शिव पुराण में भी मिलता है। यह तीर्थ भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है।

  अगर वैज्ञानिकों की मानें तो केदारनाथ का मंदिर 400 साल तक बर्फ में दबा रहा था, लेकिन फिर भी वह सुरक्षित बचा रहा। 13वीं से 17वीं शताब्दी तक यानी 400 साल तक एक छोटा हिमयुग आया था जिसमें यह मंदिर दब गया था।

  वैज्ञानिकों के मुताबिक केदारनाथ मंदिर 400 साल तक बर्फ में दबा रहा फिर भी इस मंदिर को कुछ नहीं हुआ, इसलिए वैज्ञानिक इस बात से हैरान नहीं है कि ताजा जल प्रलय में यह मंदिर बच गया।

 मंदिर का निर्मांण- 

केदारनाथ मंदिर1


  मंदिर का निर्माण विक्रम संवत् 1076 से 1099 तक राज करने वाले मालवा के राजा भोज ने इस मंदिर को बनवाया था, लेकिन कुछ लोगों के अनुसार यह मंदिर 8वीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य ने बनवाया था।

  यह उत्तराखण्ड का सबसे विशाल शिव मंदिर है जो कटवां पत्थरों के विशाल शिलाखण्डों को जोड़कर बनाया गया है। मंदिर लगभग 6 फुट ऊंचे चबूतरे पर बना है, इसकी छत चार विशाल सतंभों पर बनी है। यह विशाल छत एक ही पत्थर की बनी है। यह आश्चर्य ही है कि इतने भारी पत्थरों और खासकर विशालकाय छत को इतनी ऊंचाई पर लाकर कैसे मंदिर की शक्ल दी गई होगी। पत्थरों को एक दूसरे से जोड़ने के लिए इंटरलॉकिंग तकनीक का इस्तेमाल किया गया है। जिसकी मजबूती ही मंदिर को हजारों बर्षों से नदी के बीचोंबीच खड़ा रखने में कामयाव हुई है।

केदारनाथ ज्योतिर्लिंग की कहानी- 

केदारनाथ मंदिर2

  केदारनाथ के बारे में मान्यता है कि महाभारत के युद्ध में विजयी होने पर पांण्डव अपने गुरूजनों और सगे सबंधियों की हत्या के पाप से मुक्ति पाना चाहते थे । इसका उपाय पूछने के लिए वे भगवान श्री कृष्ण की शरण में गए । श्रीकृष्ण ने उन्हैं बताया कि भगवान शिव ही उनको इस पाप से मुक्ति प्रदान कर सकते हैं इसलिए उन्हैं भगवान शिव जी शरण में जाना चाहिए।

  भगवान श्री कृष्ण के कहने पर पांण्डव शिव जी को मनाने चल पड़े। पांण्डवों द्वारा अपने गुरूओं एवं सगे-संबंधियों का वध किये जाने से भगवान शिव जी पांण्डवों से नाराज हो गये थे । गुप्त काशी में पांण्डवों को देखकर भगवान शिव वहां से विलीन हो गये और उस स्थान पर पहुंच गये जहां पर वर्तमान में केदारनाथ स्थित है।

  लेकिन पांण्डव भगवान शिव को हर हाल में मनाना चाहते थे। शिव जी का पीछा करते हुए पांण्डव केदारनाथ पहुंच गये। इस स्थान पर पांण्डवों को आया हुए देखकर भगवान शिव ने एक बैल का रूप धारण किया और इस क्षेत्र में चर रहे बैलों के झुंण्ड में शामिल हो गये। पांण्डवों ने बैलों के झुंण्ड में भी शिव जी को पहचान लिया तो शिव जी बैल के रूप में ही धरती में समाने लगे। भगवान शिव को बैल के रूप में धरती में समाता देख भीम ने कमर से कसकर पकड़ लिया।

भीम शिला केदारनाथ मंदिर

  पांण्डवों की सच्ची श्रद्धा को देख भगवान शिव प्रकट हुए और पांण्डवों को पापों से मुक्त कर दिया। ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव जी जब बैल के रूप में धरती में समा रहे थे तो उनका सिर काठमांडू स्थित पशुतिनाथ में प्रकट हुआ। अब बहां पशुपतिनाथ का भव्य मंदिर है। इसलिए केदारनाथ और पशुपतिनाथ को मिलाकर एक ज्योर्तिलिंग भी कहा जाता है। केदरनाथ में बैल के पीठ रूप में शिवलिंग की पूजा होती है जबकि पशुपतिनाथ में बैल के सिर के रूप में शिवलिंग को पूजा जाता है।
        जय बाबा केदारनाथ।