महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की कहानी


महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग-

  यह ज्योतिर्लिंग मध्यप्रदेश के उज्जैन नगर में स्थित है। यह भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में तीसरा माना जाता है। महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की विशेषता है कि ये एकमात्र दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग है। यह ज्योतिर्लिंग तांत्रिक कार्यों के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इस मंदिर के पास एक कुण्ड है जो कोटि कुण्ड के नाम से जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस कुण्ड में कोटि तीर्थ स्थलों का जल है और इसमें स्नान करने से अनेक तीर्थ स्थलों में स्नान का पुन्य प्राप्त होता है। ऐसी मान्यता है कि इस कुण्ड की स्थापना राम भक्त हनुमान ने की थी।
महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग

मान्यता-

    माना जाता है कि महाकाल की पूजा विशेष रूप से आयु वृद्धि और आयु पर आए हुए संकट को टालने के लिए की जाती है। मान्यता है कि महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन मात्र से भक्तों का मृत्यु और बिमारी का भय समाप्त हो जाता है। उन्हैं यहां आने पर अभय दान मिलता है। उज्जैनवासी मानते हैं कि भगवान महाकालेश्वर ही उनके राजा हैं और वे ही उज्जैन की रक्षा कर रहे हैं।

महाकाल की आरती- 

   यहां प्रतिदिन सुबह की जाने वाली भस्म आरती विश्व भर में प्रसिद्ध है। भस्म आरती महाकाल का श्रृंगार और उन्हैं जगाने की विधि है। आरती के समय जली हुई भस्म से महादेव महाकालेश्वर का श्रृंगार किया जाता है। यही भस्म इनका प्रमुख प्रसाद होता है। इस आरती के दौरान पुजारी एक वस्त्र यानि धोती का इस्तेमाल करते हैं। इस आरती में अन्य वस्त्र धारण करने का नियम नहीं है। भस्म आरती के दौरान पुरूष ही भाग ले सकते है। इस दृश्य को महिलाओं को देखना वर्जित होता है। उस समय उन्हैं कुछ मिनटों के लिए घुंघट करना अनिवार्य होता है। भक्त शिव की पूजा में प्रयोग होने वाली भस्म के दर्शन अवश्य करते हैं। ऐसा माना जाता है कि ऐसा न करने से अधूरा फल मिलता है।

                महाकाल आरती

शिव पुराण में वर्णित कथा-

   शिव पुराण की ‘कोटि-रुद्र संहिता’ के सोलहवें अध्याय में  भगवान महाकाल के ज्योतिर्लिंग संबंध में सूतजी द्वारा जिस कथा को वर्णित किया गया है, उसके अनुसार अवंती नगरी में एक वेद कर्मरत ब्राह्मण रहा करते थे। वे भगवान शिव के परम भक्त थे और अपने घर में पार्थिव शिवलिंग की स्थापित कर प्रतिदिन विधिवत पुजा किया करते थे और वैदिक कर्मों के अनुष्ठान में लगे रहते थे।

  उन दिनों रत्नमाल पर्वत पर दूषण नाम वाले धर्म विरोधी एक असुर रहता था। उस असुर को ब्रह्मा जी से अजेयता का वरदान मिला था। वह धर्मस्थलों और धार्मिक कार्यों को वाधित करने में लगा रहता था। इसी दौरान वह भारी सेना लेकर अवन्ति (उज्जैन) नगरी में भी आया। उसने व्राह्मणों को धर्म कर्म छोड़ने का आदेश दिया लेकिन किसी भी व्राह्मण ने उसके आदेश को नहीं माना। तब उसने अपनी सेना सहित अवंति नगरी में उतपात मचाना शुरू कर दिया जिससे हर तरफ जन साधारण में हाहाकार मच गया। उनके भयंकर उपद्रव से भी शिव जी पर विश्वास करने वाले वे ब्राह्मण भयभीत नहीं हुए।
उन्होंने अपने आराध्य भगवान शिव की शरण में जाकर प्रार्थना और स्तुति आरम्भ कर दी।


महाकालेश्वर मंदिर

  तब उस व्राह्मण द्वारा पूजित पार्थिव लिंग की जगह एक विशाल गडढा प्रकट हो गया और तत्काल उस गड्ढे से विकट और भयंकर रूपधारी भगवान शिव प्रकट हो गये। विकट रूप धारी शंकर ने भक्तों को आस्वस्त किया और गगनभेदी हुकार भरकर दैत्यों से कहा- ‘अरे दुष्टों! तुम जैसे हत्यारों के नाश के लिए ही मैं ‘महाकाल’ प्रकट हुआ हूं। ऐसा कहकर महाकाल भगवान शिव ने अपने हुंकार मात्र से ही उस दूषण और उसकी सेना को भस्म कर दिया। इस प्रकार परमात्मा शिव ने दूषण नामक दैत्य का वध कर दिया। उन शिवभक्त ब्राह्मणों पर अति प्रसन्न भगवान शंकर ने उन्हें आश्वस्त करते हुए उनसे वर मांगने के लिए कहा-

  तब भक्ति भाव से पूर्ण उन ब्राह्मणों ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की-  दुष्टों को दण्ड देने वाले 'प्रभु' आप हम सबको इस संसार रूपी सागर से मुक्ती प्रदान करें और जन कल्याण तथा उनकी रक्षा करने के लिए यहीं हमेशा के लिए निवास करें। तथा अपने सवंय स्थापित स्वरूप के दर्शनार्थी मनुष्यों का सदा उद्धार करते रहें।

   इस प्रार्थना से प्रसन्न होकर अपने भक्तों की सुरक्षा के लिए भगवान महाकाल उस स्थान पर स्थिर रूप से स्थापित हो गये। इस प्रकार भगवान शिव इस स्थान पर महाकालेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए।

एक अन्य प्रचलित कथा- 

महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग 2

  एक समय की बात है उज्जयिनी नगरी में राजा जितेन्द्रिय चन्द्रसेन नामक एक राजा राज करते थे। वह भगवान शिव के अन्नय भक्त थे। उनके सदाचरण से प्रभावित होकर शिवजी के गणों में मुख्य गण मणिभद्र जी राजा चन्द्रसेन के मित्र बन गये।  एक बार उन्होंने राजा चन्द्रसेन ने को चिन्तामणि नामक एक महामणि भेंट की। मणि प्राप्त करने के बाद राजा ने मणि जैसे ही गले में धारण की तो सारा प्रभामण्डल जगमगा उठा, साथ ही उसे धारण करने के बाद दूरस्थ देशों में उनके यश और कीर्ति में वृद्धि होने लगी।

  जब इस मणि के बारे में दूसरे राज्य के राजाओं को जानकारी मिली तो उन राजाओं में उस मणि के प्रति लोभ बढ़ गया और उन्होंने मणि को प्राप्त करने के प्रयास शुरू कर दिए। कई राजाओं ने राजा चन्द्रसेन से मणि की मांग की लेकिन राजा को यह मणि अत्यंत प्रिय थी अत: उन्होंने इसे किसी को भी देने से इन्कार कर दिया। अंतत: वे सभी राजा एक साथ मिलकर एकत्रित हुए और उन सभी राजाओं ने आपस में परामर्श करके राजा चन्द्रसेन पर आक्रमण कर दिया। सैनिकों सहित उन राजाओं ने चारों ओर से उज्जयिनी राज्य को घेर लिया। अपने राज्य को चारों ओर से सैनिकों द्वारा घिरा हुआ देखकर शिव भक्त राजा चन्द्रसेन महाकालेश्वर भगवान शिव की शरण में पहुंच गये। वे निश्छल मन से दृढ़ निश्चय के साथ भगवान महाकाल के ध्यान में मग्न हो गये।

  जिस समय राजा समाधिस्थ थे तो उज्जयिनी में रहने बाली एक विधवा ग्वालिन अपने इकलौते पांच वर्ष के बालक को लेकर महाकालेश्वर का दर्शन करने हेतु गई। राजा को शिव भक्ति में ध्यानमग्न देखकर उस वालक को बहुत ही आश्चर्य हुआ। राजा को ध्यानमग्न देखकर वह वालक शिव भक्ति के लिए प्रेरित हुआ। घर पहुंचने के बाद वह कहीं से एक सुन्दर  पत्थर उठाकर लाया और अपने निवास से कुछ ही दूरी पर एकान्त में बैठकर पत्थर को शिवलिंग मानकर भक्तिभाव से उसकी पूजा करने लगा। उसी समय ग्वालिन ने भोजन के लिए वालक को बुलाया। उधर वालक शिव जी की पूजा में लीन था, जिसके कारण उसने मां की बात को नहीं सुना। माता द्वारा बार-बार बुलाने पर भी जब बालक ने नहीं आया तो तब मां स्वयं उठकर वहां आ गयी।

महाकालेश्वर मंदिर

  माँ ने देखा कि बालक एक पत्थर के सामने आंखें बन्द करके भक्ति में मग्न है और उसकी आवाज को नहीं सुन रहा है। वह उसका हाथ पकड़कर बार-बार खींचने लगी पर इस पर भी बालक वहां से नहीं उठा तो क्रुद मां ने उसे पीटना शुरू कर दिया और पूजा सामग्री और उस पत्थर को उठाकर दूर फेंक दिया। जब वालक ध्यानमुक्त होकर चेतना मे आया तो उसने देखा कि भगवान शिव जी की पूजा को उसकी माता ने नष्ट कर दिया, तो वह बहुत दुखी हुआ और बिलख-बिलख कर रोने लगा।
   तभी व्यथा की गहराई से चम्तकार हुआ और भगवान शिव की कृपा से एक सुन्दर दिव्य मंदिर का निर्माण हो गया। मंदिर के मध्य एक दिव्य शिवलिंग स्थापित था और उसके द्वारा चढ़ाई गई सभी पूजन-सामग्री उस शिवलिंग पर सुसज्जित पड़ी हुई थी। जब माता की तंद्रा भंग हुई तो वह अश्चर्यचकित हुई और अपने पुत्र को गले से लगा लिया।

  जब राजा चन्द्रसेन को भगवान शिव की असीम कृपा से घटी इस घटना के बारे में पता चला तो वह वालक से मिलने उसके पास पहुंचे। जब मणि के लिए युद्ध पर उतारू अन्य राजाओं को जब इस बारे में पता चला तो वे भी युद्ध की मंशा छोड़कर भगवान महाकाल की शरण में पहुंचे।

  उसी समय राम भक्त हनुमान बहां प्रकट हुए और वालक को गोद में उठाकर समस्त राजाओं सहित राजा चन्द्रसेन को अपनी कृपादृष्टि से देखा। उसके बाद अति प्रसन्नता के साथ उन्होंने बालक और समस्त जन समुह को भगवान शिव की पूजा-अर्चना की जो विधि और आचार-व्यवहार भगवान शंकर को विशेष प्रिय है, उसे विस्तार से बताया। अपना कार्य पूरा करने के बाद वे उपस्थित समस्त जनसमुह से विदा लेकर वहीं पर अर्न्तधान हो गये। राजा चन्द्रसेन से विदा लेकर कर सभी अन्य राजा भी अपनी राजधानियों को वापस लौट गये।

   कहा जाता है भगवान महाकाल तब ही से उज्जयिनी में स्वयं विराजमान है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में महाकाल की असीम महिमा का वर्णन मिलता है। महाकाल साक्षात राजाधिराज देवता माने गए हैं। भगवान महाकाल ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने बाले भक्तों की मनोकामना पूरी करते हैं और उनका कल्याण करते हैं।



















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