अक्षरधाम मंदिर का इतिहास History in Akshardham temple


  अक्षरधाम मंदिर का इतिहास

  Akshardham Temple History 


  भारत की राजधानी दिल्ली में यमुना नदी के किनारे बना यह मंदिर लगभग 100 एकड़ भूमि पर विश्व का विशालकाय हिन्दू मंदिरों परिसर है। आइये इस मनमोहक और विशाल मंदिर की कुछ बातो को जानते है –

   अक्षरधाम या स्वामीनारायण अक्षरधाम मंदिर एक हिन्दू मंदिर है। यह एक अनोखा सांस्कृतिक तीर्थ स्थल है। यह मंदिर ज्योतिर्धर भगवान स्वामिनारायण की पुण्य स्मृति में बनाया गया है। इस मंदिर को स्वामीनारायण अक्षरधाम के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर में लाखो हिन्दू साहित्यों और संस्कृतियों और कलाकृतियों को मनमोहक अंदाज़ में दर्शाया गया है। 


     अक्षरधाममंदिर – Akshardham Mandir

    स्वामीनारायण अक्षरधाम कॉम्प्लेक्स का मुख्य आकर्षण अक्षरधाम मंदिर है। यह मंदिर 86342 वर्ग फुट परिसर में फैला हुआ है। यह 141 फूट ऊँचा, 316 फूट चौ‌ड़ा और 356 फूट लंबा है। मंदिर में 2870 सीढ़ियां और एक कुण्ड है जिसमें भारत के महान गणितज्ञों की महानता को दर्शाया गया है।

    मंदिर का निर्माण श्री अक्षरधाम पुरुषोत्तम स्वामीनारायण संस्था के प्रमुख महाराज के नेतृत्व में किया गया है। मंदिर के निर्माण में गुलाबी पत्थरों, सफेद संगमरमर और बलुआ पत्थरों का उपयोग किया गया है। इसका निर्माण हिन्दू शिल्प शास्त्र के अनुसार ही किया गया है और मुख्य मंदिर में स्टील का उपयोग नहीं किया गया है। 

  तक़रीबन 11000 कलाकारों और अनगिनत सहयोगियों ने मिलकर इस विशाल मंदिर का निर्माण किया था, नवम्बर 2005 में इस मंदिर की स्थापना की गयी थी।

   मंदिर को पांच प्रमुख भागों में विभाजित किया गया है। इस मंदिर में 234 नक्काशीदार पिल्लर, 9 अलंकृत गुम्बद, 20 शिखर और 20000 साधुओं, अनुयायियों और आचार्यो की मूर्तियाँ हैं।

   स्वामीनारायण मंदिर जातिगत गुरुओं के विचारो की प्रतिमाओ से घिरा हुआ है। स्वामीनारायण में बनी हर एक मूर्ति हिन्दू परंपरा के अनुसार पञ्च धातु से बनी हुई है। इस मंदिर में सीता-राम, राधा-कृष्णा, शिव-पार्वती और लक्ष्मी-नारायण की मूर्तियाँ भी है। 

    गिनीज बुक और वर्ल्ड रिकॉर्ड में  अक्षरधाम मंदिर का नाम शामिल है। अक्षरधाम मंदिर को विश्व का सबसे विशाल हिन्दू मंदिर माना जाता है।  


      अक्षरधाम मंदिर के मुख्य आकर्षण-

1.  नारायण सरोवर- अक्षरधाम मंदिर की मुख्य ईमारत एक सरोवर से घिरी हुई है जिसे नारायण सरोवर कहा जाता है। सरोवर के पास ही में 108 गौमुख भी बने हुए है और माना जाता है की यह 108 गौमुख 108 हिन्दू भगवान का प्रतिनिधित्व करते है।

2.  म्यूज़िकल फाउटेन्स- इस सुन्दर और मनमोहक मंदिर में आकर्षित करने वाला एक म्यूजिकल फाउंटेन शो भी है। इस शो  आयोजन हर शाम को होता है। इस शो में जीवनचक्र भी दिखाया जाता है, जो इंसान के जन्म से शुरू होता है और मृत्यु पर खत्म होता है, इसे दिखाते समय ही म्यूजिकल फाउंटेन का उपयोग किया जाता है।

3.  गार्डन आफ इंडिया- अक्षरधाम मंदिर में एक और आकर्षित गार्डन है । पीतल की मूर्तियों से सुसज्जित बगीचे में कमल के फूल और घास के मैदान इस पूरे परिसर को आकर्षक बनाते है। यह गार्डन पवित्रता का स्वरुप है

4.  विशाल फिल्म स्क्रीन- मंदिर में एक फिल्म स्क्रीन भी लगी हुई है। जिसमें बच्चे योगी नीलकंठ बर्णी पर आधारित फिल्म और छह से अधिक कहानियों पर आधारित फिल्मों को दिखाया जाता है।

5.  फव्वारा शो- रोजाना शाम को फव्वाराा शो  का आयोजन किया जाता है। इस शो में जन्म और मृत्यु के चक्र को दिखाया जाता है।   

कोणार्क सूर्य मंदिर की कहानी, इतिहास




कोणार्क सूर्य मंदिर


   कोणार्क सूर्य मंदिर 13 वी शताब्दी का सूर्य मंदिर है जो भारत के ओडिशा राज्य के कोणार्क में स्थित है। ऐसा माना जाता है की यह मंदिर पूर्वी गंगा साम्राज्य के महाराजा नरसिंहदेव 1 ने 1250 CE में बनवाया था।  यह मंदिर बहुत बडे रथ के आकार में बना हुआ है, जिसमे कीमती धातुओ के पहिये, पिल्लर और दीवारे बनी है। मंदिर का मुख्य भाग आज विनाश की कगार पर है. आज यह मंदिर UNESCO वर्ल्ड हेरिटेज साईट में भी शामिल है और साथ ही यह मंदिर भारत के 7 आश्चर्यो में भी शामिल है।

कोणार्क सूर्य मंदिर

कोणार्क सूर्य मंदिर का इतिहास-



  भविष्य पुराण और साम्बा पुराण के अनुसार उस क्षेत्र में इस मंदिर के अलावा एक और सूर्य मंदिर था, जिसे 9 वी शताब्दी या उससे भी पहले देखा गया था। इन किताबो में मुंडीरा (कोणार्क), कलाप्रिय (मथुरा) और मुल्तान में भी सूर्य मंदिर बताये गए है.


   धर्मग्रन्थ साम्बा के अनुसार, कृष्णा के बेटे को कुष्ट रोग का श्राप था। उन्हें ऋषि कटक ने इस श्राप से बचने के लिये सूरज भगवान की पूजा करने की सलाह दी। तभी साम्बा ने चंद्रभागा नदी के तट पर मित्रवन के नजदीक 12 सालो तक कड़ी तपस्या की। दोनों ही वास्तविक कोणार्क मंदिर और मुल्तान मंदिर साम्बा की ही विशेषता दर्शाते है।




   एरीथ्रैअन सागर (पहली सदी CE) के पास एक बंदरगाह भी था जिसे कैनपरा कहा जाता था, और उसी को आज कोणार्क कहा जाता है।

    कोणार्क नाम विशेषतः कोना- किनारा और अर्क – सूर्य शब्द से बना है। यह पूरी और चक्रक्षेत्र के उत्तरी-पूर्वी किनारे पर बसा हुआ है।


कोणार्क मंदिर वास्तु-कला –

कोणार्क सूर्य मंदिर


    वैसे यह मंदिर असल में चंद्रभागा नदी के मुख में बनाया गया है लेकिन अब इसकी जलरेखा दिन ब दिन कम होती जा रही है। यह मंदिर विशेषतः सूरज भगवान के रथ के आकार में बनाया गया है। सुपरिष्कृत रूप से इस रथ में धातुओ से बने चक्कों की 12 जोड़िया है जो 3 मीटर चौड़ी है और जिसके सामने कुल 7 घोड़े (4 दाई तरफ और 3 बायीं तरह) है। इस मंदिर की रचना भी पारंपरिक कलिंगा प्रणाली के अनुसार ही की गयी है और इस मंदिर को पूर्व दिशा की ओर इस तरह बनाया गया है की सूरज की पहली किरण सीधे मंदिर के प्रवेश पर ही गिरे। खोंदालिट पत्थरो से ही इस मंदिर का निर्माण किया गया था।


   वास्तविक रूप से यह मंदिर एक पवित्र स्थान है, जो 229 फ़ीट  ऊँचा है। इतना ऊँचा होने की वजह से और 1837 में वहाँ विमान गिर जाने की वजह से मंदिर को थोड़ी बहुत क्षति भी पहुची थी।


   वर्तमान में इस मंदिर में और भी कई हॉल है जिसमे मुख्य रूप से नाट्य मंदिर और भोग मंडप शामिल है।

   कोणार्क मंदिर अपनी कामोत्तेजक मूर्तिवश मैथुन के लिये भी जाना जाता है।

   इस मंदिर के आस-पास 2 और विशाल मंदिर पाये गए है. जिसमे से एक महादेवी मंदिर जो कोणार्क मंदिर के प्रवेश द्वार के दक्षिण में है। ऐसा माना जाता है की महादेवी मंदिर सूरज भगवान की पत्नी का मंदिर है। इस मंदिर को 11 वी शताब्दी के अंत में खोजा गया था। कोणार्क मंदिर के पास का दूसरा मंदिर वैष्णव समुदाय का है। जिसमे बलराम, वराह और त्रिविक्रम की मुर्तिया स्थापित की गयी है, इसीलिये इसे वैष्णव मंदिर भी कहा जाता है। लेकिन दोनों ही मंदिर की मुलभुत मुर्तिया गायब है।

    मंदिरो से गायब हुई बहोत सी मूर्तियो को कोणार्क आर्कियोलॉजिकल म्यूजियम में देखा गया था।


सन डायल & टाइम –


   मंदिर के पहिये धूपघड़ी का काम करते है जिसकी सहायता से हम दिन-रात दोनों ही समय सही समय का पता लगा सकते है।

कोणार्क मंदिर 2


 कोणार्क मंदिर की कुछ अन्य रोचक बातें  –



1. रथ के आकार का निर्माणकार्य-

   कोणार्क मंदिर का निर्माण रथ के आकार में किया गया है जिसके कुल 24 पहिये है.

   रथ के एक पहिये का डायमीटर 10 फ़ीट का है और रथ पर 7 घोड़े भी है.


2. यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज साईट

   आश्चर्यचकित प्राचीन निर्माण कला का अद्भुत कोणार्क मंदिर यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज साईट में शामिल है. ये सम्मान पाने वाला ओडिशा राज्य का वह अकेला मंदिर है.


3. नश्वरता की शिक्षा –

   कोणार्क मंदिर के प्रवेश भाग पर ही दो बड़े शेर बनाये गए है. जिसमे हर एक शेर को हाथी का विनाश करते हुए बताया गया है. और इंसानी शरीर के अंदर भी एक हाथी ही होता है.

   उस दृश्य में शेर गर्व का और हाथी पैसो का प्रतिनिधित्व कर रहे है.

  इंसानो की बहुत सी समस्याओं को उस एक दृअह्य में ही बताया गया है.


4. सूर्य भगवान को समर्पित –

  मंदिर में सूर्य भगवान की पूजा की जाती है।

   मंदिर का आकार एक विशाल रथ की तरह है और यह मंदिर अपनी विशेष कलाकृति और मंदिर निर्माण में हुए कीमती धातुओ के उपयोग के लिये जाना जाता है।


5. मंदिर के रथ के पहिये धुपघडी का काम करते है और सही समय बताते है ।

  इस मंदिर का मुख्य आकर्षन रथ में बने 12 पहियो की जोड़ी है. ये पहिये को साधारण पहिये नही है क्योकि ये पहिये हमें सही समय बताते है, उन पहियो को धूपघड़ी भी कहा गया है।

   कोई भी इंसान पहियो की परछाई से ही सही समय का अंदाज़ा लगा सकता है।


6. निर्माण के पीछे का विज्ञान

   मंदिर में ऊपरी भाग में एक भारी चुंबक लगाया गया है और मंदिर के हर दो पत्थरो पर लोहे की प्लेट भी लगी है. चुंबक को इस कदर मंदिर में लगाया गया है की वे हवा में ही फिरते रहते है।

   इस तरह का निर्माणकार्य भी लोगो के आकर्षण का मुख्य कारण है, लोग बड़ी दूर से यह देखने आते है।


7. काला पगोडा –

   कोणार्क मंदिर को पहले समुद्र के किनारे बनाया गया था लेकिन समंदर धीरे-धीरे कम होता गया और मंदिर भी समंदर के किनारे से थोडा दूर हो गया और मंदिर के गहरे रंग के लिये इसे काला पगोडा कहा जाता है और नकारात्मक ऊर्जा को कम करने के लिये ओडिशा में इसका प्रयोग किया जाता है।


8. वसृशिल्पीय आश्चर्य-

   कोणार्क मंदिर का हर एक टुकड़ा अपने आप में ही विशेष है और लोगो को आकर्षित करता है।

इसीलिये कोणार्क सूर्य मंदिर भारत के सात आश्चर्यो में से एक है।


9. किनारो पर किया गया निर्देशन-

   हर दिन सुबह सूरज की पहली किरण नाट्य मंदिर से होकर मंदिर के मध्य भाग पर आती है। उपनिवेश के समय ब्रिटिशो ने चुम्बकीय धातु हासिल करने क्व लिये चुंबक निकाल दिया था।


बद्रीनाथ धाम का इतिहास, History of Badrinath dham temple

बद्रीनाथ धाम-

बद्रीनाथ मंदिर

    हिन्दुओं के चार धामों में से एक ब्रद्रीनाथ धाम भगवान विष्णु का निवास स्थल है। यह भारत के उत्तरांचल राज्य में अलकनंदा नदी के बाएं तट पर नर और नारायण नामक दो पर्वत श्रेणियों के बीच स्थित है। चार धाम भारत के चार धार्मिक स्‍थलों का एक सर्किट है। इस पवित्र परिधि के अंतर्गत भारत के चार दिशाओं के महत्‍वपूर्ण मंदिर आते हैं। ये मंदिरें हैं- पुरी, रामेश्वरम, द्वारका और बद्रीनाथ इन मंदिरों को 8वीं शदी में आदि शंकराचार्य ने एक सूत्र में पिरोया था। माना जाता है कि बद्रीनाथ सबसे ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण और अधिक तीर्थयात्रियों द्वारा दर्शन करने वाला मंदिर है।

स्थापना-

बद्रीनाथ मंदिर1

   भगवान विष्णु को समर्पित यह मंदिर आदिगुरू शंकराचार्य द्वारा चारों धाम में से एक के रूप में स्थापित किया गया था।
यह मंदिर तीन भागों में विभाजित है, गर्भगृह, दर्शनमण्डप और सभामण्डप। मंदिर परिसर में भगवान विष्णु की एक मीटर ऊंची काले पत्थर की प्रतिमा है। बद्रीनाथ की यह मूर्ति शालग्राम शिला से बनी हुई, चतुर्भुज ध्यानमुद्रा में है। कहा जाता है कि यह मूर्ति देवताओंं ने नारदकुंड से निकालकर स्थापित की थी। सिद्ध, ऋषि, मुनि इसके प्रधान अर्चक थे। जब बौद्धों का प्राबल्य हुआ तब उन्होंने इसे बुद्ध की मूर्ति मानकर पूजा आरम्भ की। शंकराचार्य की प्रचार यात्रा के समय बौद्ध तिब्बत भागते हुए मूर्ति को अलकनन्दा में फेंक गए। शंकराचार्य ने अलकनन्दा से पुन: बाहर निकालकर उसकी स्थापना की। तदनन्तर मूर्ति पुन: स्थानान्तरित हो गयी और तीसरी बार तप्तकुण्ड से निकालकर रामानुजाचार्य ने इसकी स्थापना की। मंदिर के दाहिने ओर कुबेर , लक्ष्मी और नारायण की मूर्तियां है। इसे धरती का वैकुंठ भी कहा जाता है।

   शंकराचार्य की व्यवस्था के अनुसार बद्रीनाथ मंदिर का मुख्य पुजारी दक्षिण भारत के केरल राज्य से होता है। मंदिर हिमपात की वजह से नवम्बर से लेकर अप्रैल के अंत  तक मंदिर दर्शनों के लिए बन्द रहता है।

श्री विशाल बद्री

   बद्रीनाथ धाम में श्री बदरीनारायण भगवान के पांच स्वरूपों की पूजा अर्चना होती है। विष्णु के इन पांच रूपों को ‘पंच बद्री’ के नाम से जाना जाता है। बद्रीनाथ के मुख्य मंदिर के अलावा अन्य चार बद्रियों के मंदिर भी यहां स्थापित है। श्री विशाल बद्री पंच बद्रियों में से मुख्य है। इसकी देव स्तुति का पुराणों में विशेष वर्णन मिलता है।

बद्रीनाथ धाम की कथा-

बद्रीनाथ मंदिर 2

   पौराणिक कथा के अनुसार जब भगवान विष्णु योगध्यान मुद्रा में तपस्या में लीन थे तो बहुत अधिक हिमपात होने लगा। भगवान विष्णु हिम में पूरी तरह डूब चुके थे। उनकी इस दशा को देख कर माता लक्ष्मी का हृदय द्रवित हो उठा और उन्होंने स्वयं भगवान विष्णु के समीप खड़े हो कर एक बेर (बदरी) के वृक्ष का रूप ले लिया और समस्त हिम को अपने ऊपर सहने लगीं। माता लक्ष्मीजी भगवान विष्णु को वर्षा और हिम से बचाने की कठोर तपस्या में जुट गयीं। कई वर्षों बाद जब भगवान विष्णु ने अपना तप पूर्ण किया तो देखा कि लक्ष्मीजी हिम से ढकी पड़ी हैं। तो उन्होंने माता लक्ष्मी के तप को देख कर कहा कि हे देवी! तुमने भी मेरे ही बराबर तप किया है इसलिए आज से इस धाम पर मुझे तुम्हारे ही साथ पूजा जायेगा और क्योंकि तुमने मेरी रक्षा बदरी वृक्ष के रूप में की है इसलिए आज से मुझे बदरी के नाथ-बदरीनाथ के नाम से जाना जायेगा। इस तरह से भगवान विष्णु का नाम बदरीनाथ पड़ा।

   जहाँ भगवान बदरीनाथ ने तप किया था, वही पवित्र-स्थल आज तप्त-कुण्ड के नाम से विश्व-विख्यात है और उनके तप के रूप में आज भी उस कुण्ड में हर मौसम में गर्म पानी उपलब्ध रहता है।

भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग


भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग- 

   धार्मिक पुराणों के अनुसार भगवान शिव अपने भक्तों की तपस्या से प्रसन्न होकर जहां- जहां उनकी रक्षा और जन कल्याण के लिए प्रकट हुए उन स्थानों को ज्योतिर्लिंगों के रूप में जाना जाता है। इनकी संख्या 12 है। आइए जानते हैं इन ज्योतिर्लिंगों के बारे में-

Bhagwan shiv ke  Jyotirling

1- सोमनाथ ज्योतिर्लिंग-


    सोमनाथ का यह मंदिर भारत के पश्चिमी तट पर गुजरात के सौराष्ट्र की बेरावल बंदरगाह में स्थित है। माना जाता है कि इस मंदिर का असितत्व ईसा पूर्व से ही था । इस मंदिर का उल्लेख ऋगवेद में भी मिलता है।
सोमनाथ मंदिर के शिवलिंग की गिनती भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में सर्बप्रथम के रूप में होती है। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर का निर्मांण खुद चन्द्र देव यानि सोम देव ने करवाया था। इसी कारण इस मंदिर का नाम सोमनाथ पड़ा।
 कहते हैं इस स्थान पर भगवान श्री कृष्ण ने अपनी देह का त्याग किया था । इस वजह से इस स्थान का महत्व और भी बढ़ गया ।

2- मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग-


    यह ज्योतिर्लिंग आन्ध्र प्रदेश में कृष्णा नदी के तट पर श्रीशैल नाम के पर्वत पर स्थित है। इस मंदिर का महत्व भगवान शिव के कैलाश पर्वत के समान कहा गया है। इस पर्वत को दक्षिण भारत का कैलाश भी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि यहां आकर शिवलिंग की पूजा-अर्चना करने वाले भक्तों की सभी सात्विक मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। भगवान शिव की भक्ति मनुष्य को मोक्ष के मार्ग पर ले जाने वाली है।
   धार्मिक शास्त्र 12 प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंगों में शामिल इस ज्योतिर्लिंग के धार्मिक और पौराणिक महत्व की व्याख्या करते हैं। कहते हैं कि इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने मात्र से ही व्यक्ति को उसके सभी पापों से मुक्ति मिलती है

3- महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग-


    यह ज्योतिर्लिंग मध्यप्रदेश के उज्जैन नगर में स्थित है। यह भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में तीसरा माना जाता है। महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की विशेषता है कि ये एकमात्र दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग है। यहां प्रतिदिन सुबह की जाने वाली भस्मारती विश्व भर में प्रसिद्ध है। यह ज्योतिर्लिंग तांत्रिक कार्यों के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इस मंदिर के पास एक कुण्ड है जो कोटि कुण्ड के नाम से जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस कुण्ड में कोटि तीर्थ स्थलों का जल है और इसमें स्नान करने से अनेक तीर्थ स्थलों में स्नान का पुन्य प्राप्त होता है। ऐसी मान्यता है कि इस कुण्ड की स्थापना राम भक्त हनुमान ने की थी।
    माना जाता है कि महाकाल की पूजा विशेष रूप से आयु वृद्धि और आयु पर आए हुए संकट को टालने के लिए की जाती है। मान्यता है कि महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन मात्र से भक्तों का मृत्यु और बिमारी का भय समाप्त हो जाता है। उन्हैं यहां आने पर अभय दान मिलता है। उज्जैनवासी मानते हैं कि भगवान महाकालेश्वर ही उनके राजा हैं और वे ही उज्जैन की रक्षा कर रहे हैं।

4- ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग-


   ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मध्य प्रदेश के खण्डवा जिले में स्थित है। यह ज्योतिर्लिंग भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों मे से एक है। जिस स्थान पर यह ज्योतिर्लिंग स्थित है, उस स्थान पर नर्मदा नदी बहती है और पहाड़ी के चारों ओर नदी बहने से यहां ऊं का आकार बनता है। ऊं शब्द की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से हुई है इसका उच्चारण सबसे पहले ब्रह्मा ने किया था। किसी भी धार्मिक शास्त्र या वेदों का पाठ ऊं के उच्चारण के विना नहीं किया जाता। यह ज्योतिर्लिंग ऊं का आकार लिए हुए है, इस कारण इसे ओंकारेश्वर नाम से जाना जाता है। यहां इस ज्योतिर्लिंग के दो स्वरूप हैं एक ओंकारेश्वर और दूसरा ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग है। इन दोनों ज्योतिर्लिंगों की सत्ता और स्वरूप एक ही है।

5- केदारनाथ ज्योतिर्लिंग-


    केदारनाथ स्थित ज्योतिर्लिंग भगवान शिव के 12 प्रमुख ज्योतिर्लिंगों में आता है। यह उत्तराखंड राज्य के रूद्रप्रयाग जिले में स्थित है। बाबा केदारनाथ का यह मंदिर समुद्र तल से 3584 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। केदारनाथ का वर्णन स्कन्द पुराण एवं शिव पुराण में भी मिलता है। यह तीर्थ भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है।

  अगर वैज्ञानिकों की मानें तो केदारनाथ का मंदिर 400 साल तक बर्फ में दबा रहा था, लेकिन फिर भी वह सुरक्षित बचा रहा। 13वीं से 17वीं शताब्दी तक यानी 400 साल तक एक छोटा हिमयुग आया था जिसमें यह मंदिर दब गया था।

  वैज्ञानिकों के मुताबिक केदारनाथ मंदिर 400 साल तक बर्फ में दबा रहा फिर भी इस मंदिर को कुछ नहीं हुआ, इसलिए वैज्ञानिक इस बात से हैरान नहीं है कि ताजा जल प्रलय में यह मंदिर बच गया।

6- भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग-


   बारह ज्योतिर्लिंगों में भीमाशंकर का स्थान छठा है। यह ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र के पूणे के सहाद्रि नामक पर्वत पर स्थित है। कहते हैं जो भी व्यक्ति प्रतिदिन प्रात: काल इस ज्योतिर्लिंग के श्लोकों का पाठ करता है वह सात जन्मों तक के पापों से मुक्त हो जाता है।

   भीमशंकर मंदिर बहुत ही प्राचीन है। भीमशंकर मंदिर से पहले ही शिखर पर देवी पार्वती का एक मंदिर है। इसे कमला जी मंदिर कहा जाता है। मान्यता है कि इसी स्थान पर देवी ने राक्षस त्रिपुरासुर से युद्ध में भगवान शिव की सहायता की थी। युद्ध के बाद भगवान ब्रह्मा ने देवी पार्वती की कमलों से पूजा की थी।

7- काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग-


   विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह उत्तर प्रदेश के वाराणसी जनपद के काशी नामक स्थान पर स्थित है। काशी सभी धर्म स्थलों में सबसे अधिक महत्व रखती है। इस स्थान की मान्यता है, कि प्रलय आने पर भी यह स्थान बना रहेगा। इसकी रक्षा के लिए भगवान शिव इस स्थान को अपने त्रिशूल पर धारण करेंगे। मंदिर के ऊपर के सोने के छत्र को ले कर यह मान्यता है कि अगर उसे देख कर कोई मुराद मांगी जाती है तो वह अवश्य ही पूरी होती है। यहां शिव लिंग काले पत्थर का बना हुआ है। इसके अलावा दक्षिण की तरफ़ तीन लिंग हैं, जिन्हें मिला कर नीलकंठेश्वर कहा जाता है।

8- त्रयंवकेश्वर ज्योतिर्लिंग-


    त्रयंवकेश्वर ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र के नासिक जिले में गोदावरी नदी के करीव स्थित है। इसके सबसे नजदीक ब्रम्हागिरी पर्वत है और इसी पर्वत से गोदावरी नदी निकलती है। प्राचीनकाल में यह स्थान गौतम ऋषि की तपोभूमि थी। अपने ऊपर लगे गोहत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए गौतम ऋषि ने कठोर तप कर भगवान शिव से मां गंगा को यहाँ अवतरित करने का वरदान मांगा था। फलस्वरूप दक्षिण की गंगा अर्थात गोदावरी नदी का उद्गम हुआ।  ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव के तीन नेत्र हैं इसीलिए उन्हैं त्रयंवकेश्वर भी कहा जाता है। इसी कारण इस मंदिर का नाम त्रयंवकेश्वर पड़ा है। धार्मिक शास्त्रों में शिव पुराण में भी मंदिर त्रयंवकेश्वर मंदिर का वर्णन मिलता है। यहां से ब्रम्हागिरी पर्वत पर जाने के लिए सात सौ सीड़ियां हैं। सीड़ियोंसे ऊपर जाने के मध्य में रामकुण्ड और लक्ष्मण कुण्ड हैं। ऊपर पहुंचने पर गो-मुख जो गोदावरी नदी के उद्गम स्थान है के दर्शन होते हैं।

9- वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग-


   भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक पवित्र वैद्यनाथ शिवलिंग झारखंड के देवघर में स्थित है। इस जगह को लोग बाबा बैजनाथ धाम के नाम से भी जानते हैं। कहते हैं भोलेनाथ यहां आने वाले की सभी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। इसलिए इस शिवलिंग को कामना लिंग भी कहते हैं। बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग में कावड़ चढ़ाने का बहुत महत्व है। भक्तजन सुल्तान गंज से गंगाजल लेकर 106 कि.मी. की पैदल यात्रा करके देवधर तक बैद्यनाथ धाम की यात्रा करते है।


10-नागेश्वर ज्योतिर्लिंग-


   यह ज्योतिर्लिंग गुजरात के बाहरी क्षेत्र में द्वारिका स्थान में स्थित है। धर्म शास्त्रों में भगवान शिव नागों के देवता है और नागेश्वर का पूर्ण अर्थ नागों का ईश्वर है। भगवान शिव का एक अन्य नाम नागेश्वर भी है। द्वारका पुरी से भी नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की दूरी 17 मील की है। इस ज्योतिर्लिंग की महिमा में कहा गया है कि जो व्यक्ति पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ यहां दर्शनों के लिए आता है उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं।

11- रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग-

    रामेश्वरम का यह ज्योतिर्लिंग भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक होने के साथ-साथ हिंदुओं के चार धामों में से एक भी है। इस ज्योतिर्लिंग के विषय में यह मान्यता है कि इसकी स्थापना स्वयं भगवान श्रीराम ने की थी। भगवान राम के द्वारा स्थापित होने के कारण ही इस ज्योतिर्लिंग का नाम भगवान श्री राम के नाम पर रामेश्वरम पड़ा।
  रामेश्वरम का यह ज्योतिर्लिंग तमिलनाडु राज्य के रामनाथपुरम जिले के मन्नार की खाड़ी में स्थित है। यह स्थान हिंदमहासागर और बंगाल की खाड़ी से चारों ओर से घिरा हुआ एक सुंदर शंख आकार का द्धीप है।
  बताया जाता है, कि बहुत पहले मन्नार द्वीप तक लोग पैदल चलकर भी जाते थे, लेकिन 1480 ई में एक चक्रवाती तूफान ने इस रास्ते को तोड़ दिया। जिस स्थान पर यह टापु मुख्य भूमि से जुड़ा हुआ था, वहां इस समय ढाई मील चौड़ी एक खाड़ी है। शुरू में इस खाड़ी को नावों से पार किया जाता था। बाद में आज से लगभग चार सौ वर्ष पहले कृष्णप्पनायकन नाम के एक राजा ने उस स्थान पर पत्थर का बहुत बड़ा पुल बनवाया।
  अंग्रेजो के आने के बाद उस पुल की जगह पर एक जर्मन इंजीनियर की मदद से रेल का सुंदर पुल बनबाया गया। उस समय तक पुराना पत्थर का पुल लहरों की टक्करों से टूट चुका था। इस समय यही पुल रामेश्वरम् को शेष भारत से रेल सेवा द्वारा जोड़ता है।
 

12-घृष्णेश्वर  ज्योतिर्लिंग-

   घृष्णेश्वर महादेव का यह मंदिर एक प्राचीन प्रसिद्ध हिंदु मंदिर है। यह  मंदिर महाराष्ट्र के औरंगाबाद शहर के समीप दौलताबाद से 11 किलोमीटर दूर वेरुल गांव में स्थित है। इसे घृष्णेश्वर या घुश्मेश्वर के नाम से भी जाना जाता है। धार्मिक पुराणों विशेषकर रुद्रकोटि सहिता और शिव पुराण में इसका वर्णन मिलता है। लोग दूर-दूर से यहां दर्शनों के लिए आते हैं। यह ज्योतिर्लिंग भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से अंतिम माना जाता है। बौद्ध भिक्षुओं द्वारा निर्मित एलोरा की प्रसिद्ध गुफाएं इस मंदिर के समीप स्थित हैं।
    

घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग का इतिहास


घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग- 

घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग

   घृष्णेश्वर महादेव का यह मंदिर एक प्राचीन प्रसिद्ध हिंदु मंदिर है। यह  मंदिर महाराष्ट्र के औरंगाबाद शहर के समीप दौलताबाद से 11 किलोमीटर दूर वेरुल गांव में स्थित है। इसे घृष्णेश्वर या घुश्मेश्वर के नाम से भी जाना जाता है। धार्मिक पुराणों विशेषकर रुद्रकोटि सहिता और शिव पुराण में इसका वर्णन मिलता है। लोग दूर-दूर से यहां दर्शनों के लिए आते हैं। यह ज्योतिर्लिंग भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से अंतिम माना जाता है। बौद्ध भिक्षुओं द्वारा निर्मित एलोरा की प्रसिद्ध गुफाएं इस मंदिर के समीप स्थित हैं।

मान्यता-

    मान्यता है की घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग और शिवालय सरोवर का दर्शन करने से सब प्रकार के अभीष्ट प्राप्त होते हैं। निसंतानों को संतान की प्राप्ति होती है। घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन व पूजन करने से सब प्रकार के सुखों की वृद्धि होती है। 

मंदिर का निर्माण- 

घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग

    इस प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्धार महाराजा शिवाजी के दादा जी मालोजी भोंसले (वेरुल) ने 16वीं शताब्दी में कराया था। उसके पश्चात् इस मंदिर का पुनर्निर्माण 18वीं शताब्दी में इंदौर की महारानी, अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया था, जिन्हें काशी विश्वनाथ मंदिर, गया के विष्णु मंदिर और सोमनाथ के भव्य मंदिर जैसे अनेकों हिन्दू मंदिरों का जीर्णोद्धार कराने के लिए जाना जाता है। मुगल शासनकाल के दौरान कई बार इस मंदिर को ध्वस्त किया, और बार बार इस मंदिर का पुनर्निर्माण किया गया। मुग़ल साम्राज्य के पतन के बाद अहिल्याबाई होल्कर द्वारा वर्तमान मंदिर का निर्माण कराया गया।

घृष्णेश्वर मंदिर की कथा-

   भारत के दक्षिण प्रदेश के देवगिरि पर्वत के निकट सुकर्मा नामक ब्राह्मण और उसकी पत्नी सुदेश निवास करते थे। दोनों ही भगवान शिव के परम भक्त थे। परंतु इनके कोई संतान सन्तान नही थी, जिसके कारण वे बहुत दुखी रहते थे। इस कारण उनकी पत्नि उनसे दूसरी शादी करने का आग्रह करती रहती थी। अंतत: पत्नि के जोर देने पर सुकर्मा ने अपनी पत्नी की बहन घुश्मा के साथ विवाह कर लिया।

घृष्णेश्वर मंदिर

    घुश्मा भी शिव भगवान की अनन्य भक्त थी और भगवान शिव की कृपा से उसे एक पुत्र की प्राप्ति हुई। पुत्र प्राप्ति से घुश्मा का मान बढ़ गया। इस कारण सुदेश को उससे ईष्या होने लगी जब पुत्र बड़ा हो गया तो उसका विवाह कर दिया गया यह सब देखकर सुदेहा के मन मे और अधिक ईर्षा पैदा हो गई। जिसके कारण उसने पुत्र का अनिष्ट करने की ठान ली ओर एक दिन रात्रि में जब सब सो गए तब उसने घुश्मा के पुत्र को चाकू से मारकर उसके शरीर के टुकड़े कर दिए और उन टुकड़ों को सरोवर में डाल दिया जहां पर घुश्मा प्रतिदिन पार्थिव लिंग का विसर्जन किया करती थी।

   सुवह उठकर जब घुश्मा को इस बारे में पता चला तो घुश्मा जरा भी विचलित नहीं हुई और अपने नित्य पूजन व्रत में लगी रही। वह भगवान से अपने पुत्र को वापिस पाने की कामना करने लगी। वह प्रतिदिन की तरह शिव मंत्र ऊँ नम: शिवाय का उच्चारण करती हुई पार्थिव लिंगों को लेकर सरोवर के तट पर गई। जब उसने पार्थिव लिंगों को तालाब में प्रवाहित किया तो उसका पुत्र सरोवर के किनारे खड़ा हुआ दिखाई पड़ा। अपने पुत्र को देखकर घुश्मा प्रसन्नता से भर गई। जब उसे पुत्र की मृत्यु के कारण का पता चला तो भी उसे अपनी बडी़ बहन पर क्रोध नही आया। घुश्मा की इसी सरलता, भक्ति और विशवास से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उसको दर्शन दिए।

घृष्णेश्वर मंदिर1

   भगवान शिव घुश्मा की भक्ति से बहुत प्रसन्न थे उन्होंने घुश्मा को वरदान मांगने के लिए कहा, भगवाने ने कहा यदि वो चाहे तो वो उसकी बहन को दण्ड देगें। परंतु घुश्मा ने श्रद्धा पूर्वक महेश्वर को प्रणाम करके कहा कि सुदेहा बड़ी बहन है अत: आप उसकी रक्षा करे और उसे क्षमा करें। घुश्मा ने कहा हे 'महादेव' अगर आप मुझे वर देना चाहते हैं तो लोगों की रक्षा और कल्याण के लिए आप यहीं सदा निवास करें। घुश्मा की प्रार्थना से प्रसन्न भगवान शिव जी ने उस स्थान पर सदैव वास करने का वरदान दिया। तथा उसी समय वह ज्योतर्लिंग के रूप में उस स्थान पर स्थापित हुए और घुश्मेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए।