Ads

सोमनाथ मंदिर का इतिहास

भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिगों में से एक है सोमनाथ मंदिर का शिवलिंग

सोमनाथ का यह मंदिर भारत के पश्चिमी तट पर गुजरात के सौराष्ट्र की बेरावल बंदरगाह में स्थित है। माना जाता है कि इस मंदिर का असितत्व ईसा पूर्व से ही था । इस मंदिर का उल्लेख ऋगवेद में भी मिलता है।

           

सोमनाथ ज्योतिर्लिंग



  सोमनाथ मंदिर के शिवलिंग की गिनती भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में सर्बप्रथम के रूप में होती है। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर का निर्मांण खुद चन्द्र देव यानि सोम देव ने करबाया था। इसी कारण इस मंदिर का नाम सोमनाथ पड़ा।
 कहते हैं इस स्थान पर भगवान श्री कृष्ण ने देह त्याग किया था  इस वजह से इस स्थान का महत्व और भी बढ़ गया ।

सोमनाथ मंदिर की कहानी -


कथा के अनुसार राजा दक्ष ने अपनी 27 कन्याओं का विवाह चन्द्र देव से किया था। सत्ताईस कन्याओं का पति बन कर चन्द्र देव बेहद खुश थे। सभी कन्याएं भी इस विवाह से प्रसन्न थी। इन सभी कन्याओं में चन्द्र देव सबसे अधिक रोहिणी नामक कन्या को चाहते थे। जब इस बात की शिकायत सब कन्यांओ ने राजा दक्ष से की तो राजा दक्ष ने चन्द्र देव को बहुत समझाया लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। उनके समझाने का प्रभाव यह हुआ कि उनका लगाव रोहिणी के प्रति और अधिक हो गया। यह जानने के बाद राजा दक्ष ने देव चन्द्र को श्राप दे दिया कि जाओ आज से तुम क्षय रोग से पीड़ित हो जाओगे। और तुम्हारा प्रभाव दिन प्रतिदिन कम होता जाएगा । श्रापवश  चन्द्र देव क्षय रोग से पीड़ित हो गए। उनके सम्मान और प्रभाव में भी कमी हो गई। इस श्राप से मुक्त होने के लिए वे भगवान ब्रह्मा की शरण में गए ।

 सोमनाथ मंदिर

इस शाप से मुक्ति का ब्रह्मा देव ने यह उपाय बताया कि सरस्वती के मुहाने पर स्थित अरब सागर में स्नान करके चन्द्र देव को भगवान शिव की उपासना करनी होगी । तभी इस श्राप से मुक्ति मिल सकती है। भगवान ब्रह्मा जी के कहे अनुसार चन्द्र देव ने  भगवान शिव की कठोर तपस्या की । चन्द्र देव की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने चन्द्र देव को दर्शन दिये और वरदान मांगने के लिए कहा। तब चन्द्र देव ने श्राप से मुक्त करने के लिए कहा।

इस श्राप को पूरी से समाप्त करना भगवान शिव के लिए भी सम्भव नहीं था। मध्य का मार्ग निकाला गया, कि एक माह में जो पक्ष होते है । एक शुक्ल पक्ष और कृ्ष्ण पक्ष जिसमें से किसी एक एक पक्ष में उनका यह श्राप नहीं रहेगा परन्तु दुसरे पक्ष में इस श्राप से ग्रस्त रहेगें।  शुक्ल पक्ष और कृ्ष्ण पक्ष में वे एक पक्ष में बढते है, और दूसरे में वो घटते जाते है। चन्द्र देव ने भगवान शिव की यह कृ्पा प्राप्त करने के लिए उन्हें धन्यवाद किया और उनकी स्तुति की।

सोमनाथ मंदिर 3


उसी समय से इस स्थान पर भगवान शिव की उपासना करने का प्रचलन प्रचलन प्रारम्भ हुआ तथा भगवान शिव सोमनाथ मंदिर में आकर पूरे विश्व में विख्यात हो गए। देवता भी इस स्थान को नमन करते है ।इस स्थान पर चन्द्र देव भी भगवान शिव के साथ स्थित है।




इस मंदिर को कई बार किया गया नष्ट —






महोमद गजनवी ने सन् 1026 में इस मंदिर पर आक्रमण कर इस मंदिर की पूरी सम्पति लूट ली और इसे नष्ट कर दिया। इसके बाद गुजरात के राजा भीम तथा मालवा के राजा भोज ने इस मंदिर का पुनः निर्माण करवाया। परन्तु सन् 1300 में दिल्ली के सल्तनत अलाउद्दीन ने अपने सेना द्वारा इस मंदिर को पुनः नष्ट किया तथा इसके बाद भी मंदिर कई बार नष्ट हुआ और कई बार इसका पुनः निर्माण हुआ. ऐसा माना जाता है की आगरा के ताजमहल में रखे देवदार सोमनाथ मंदिर के है। महमूद गजनवी सन् 1026 में मंदिर लूटने के साथ ही इन्हे अपने साथ ले गया था। सोमनाथ मंदिर के मूल स्थल पर मंदिर के ट्रस्ट द्वार नवीनतम मंदिर का निर्माण किया गया था।







राज कुमार पाल द्वारा इसी स्थान पर अंतिम मदिर बनवाया गया था। सौराष्ट्र के मुख्य्मंत्री उच्छ्गंराय नवल शंकर ने इस मंदिर का उत्खनन सन् 1940 में कराया. इसके बाद पुरातत्व विभाग ने इस मंदिर के उत्खनन से प्राप्त ब्रह्मशीला में भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग स्थापित करा। इस समय जो मंदिर खड़ा है उसका निर्माण भारत सरकार के गृह मंत्री सरदार बल्ल्भ भाई पटेल ने करवाया था जो सन् 1995 को भारत सरकार के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने राष्ट्र को समर्पित कर दिया था.


मंदिर के दक्षिण में समुद्र के किनारे पर एक स्तम्भ स्थापित है जिसके ऊपर एक तीर रख कर संकेत किया गया है की सोमनाथ मंदिर और दक्षिण धुर्व के बीच पृथ्वी का कोई भू-भाग स्थित नहीं है। मदिर के पृष्ठ भाग में स्थित प्राचीन मंदिर के विषय में यह मान्यता है की यह पार्वती जी का मंदिर है. यह तीर्थ स्थान पितृगणों के श्राद्ध, नारयण बली आदि के लिए बहुत प्रसिद्ध है। सोमनाथ मंदिर में खासकर चैत्र, भाद्र, कार्तिक इन तीनो महीनों में बहुत अधिक मात्र में भीड़ लगी रहती है।




जय भोलेनाथ ।






कामाख्या माता मंदिर का इतिहास

  

कामाख्या देवी मंदिर- 


कामाख्या देवी मंदिर


   कामाख्या मंदिर असम के गुवाहाटी रेलवे स्टेशन से 10 किलोमीटर दूर नीलांचल पहाड़ी पर स्थित है। यह मंदिर देवी कामाख्या को समर्पित है। कामाख्या शक्तिपीठ 52 शक्तिपीठों में से एक है तथा यह सबसे पुराना शक्तिपीठ है। मान्यता है कि कामाख्या देवी मंदिर के स्थान पर देवी माता सती की योनी गिरी थी । बाद में उसी स्थान मंदिर का निर्माण किया गया।
   इस मंदिर की खासियत यह है की मंदिर के गर्भ ग्रह में देवी की कोई मूर्ति नहीं है वल्कि मंदिर के गर्भ गृह में योनि के आकार का एक कुंड है जिसमें से जल निकलता रहता है। यह योनि कुंड कहलाता है। योनि कुंड लाल कपड़े व फूलों से ढका रहता है। मंदिर का यह महत्वपूर्ण हिस्सा जमीन से लगभग 20 फीट नीचे एक गुफा में स्थित है। यह मंदिर हर माह तीन दिनों के लिए बंद होता है। माना जाता है कि यह स्थान व्रह्मांड का केंद्र बिंदु है। इस स्थान को तांत्रिक सिद्धि के लिए बेहतर स्थान माना जाता है।
   इस मंदिर में प्रतिवर्ष अम्बुबाची मेले का आयोजन किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि अम्बुबाची मेले के दौरान मां कामाख्या रजस्वला होती हैं, और इन तीन दिन में योनि कुंड से जल प्रवाह कि जगह रक्त प्रवाह होता है । अम्बुबाची योग पर्व के दौरान मां भगवती के गर्भ गृह के कपाट स्वंत ही बंद हो जाते हैं और उनका दर्शन करना भी निषेध हो जाता है।          अम्बुबाची मेले को कामरूपों का कुंभ भी कहा जाता है।
इस पर्व की महत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पूरे विश्व से इस पर्व में तंत्र मंत्र और साधना हेतू सभी प्रकार की सिद्धियों के लिए उच्च कोटी के तांत्रिकों और अघोरियों का बड़ा जमघट लगा रहता है। तीन दिनों के उपरांत भगवती की रजस्वला समाप्ति पर उनकी विशेष पूजा की जाती है।
  मां कामाख्या देवी की रोजाना पूजा के अलावा भी साल में कई बार कुछ विशेष पूजा का आयोजन होता है। इनमें पोहन बिया, दुर्गाडियूल, वसंती पूजा, मडानडियूल, अम्बूवाकी और मनसा दुर्गा पूजा प्रमुख हैं।

कामाख्या से जुडी कहानी –


कामाख्या देवी

    कामाख्या के शोधार्थी एवं प्राच्य विद्या विशेषज्ञ डॉ. दिवाकर शर्मा कहते हैं कि कामाख्या के बारे में किंवदंती है कि घमंड में चूर असुरराज नरकासुर एक दिन मां भगवती कामाख्या को अपनी पत्नी के रूप में पाने का दुराग्रह कर बैठा था। कामाख्या महामाया ने नरकासुर की मृत्यु को निकट मानकर उससे कहा कि यदि तुम इसी रात में नील पर्वत पर चारों तरफ पत्थरों के चार सोपान पथों का निर्माण कर दो एवं कामाख्या मंदिर के साथ एक विश्राम-गृह बनवा दो, तो मैं तुम्हारी इच्छानुसार पत्नी बन जाऊँगी और यदि तुम ऐसा न कर पाये तो तुम्हारी मौत निश्चित है।

   गर्व में चूर असुर ने पथों के चारों सोपान प्रभात होने से पूर्व पूर्ण कर दिये और विश्राम कक्ष का निर्माण कर ही रहा था कि महामाया के एक मायावी कुक्कुट (मुर्गे) द्वारा रात्रि समाप्ति की सूचना दी गयी, जिससे नरकासुर ने क्रोधित होकर मुर्गे का पीछा किया और ब्रह्मपुत्र के दूसरे छोर पर जाकर उसका वध कर डाला। यह स्थान आज भी `कुक्टाचकि’ के नाम से विख्यात है। बाद में मां भगवती की माया से भगवान विष्णु ने नरकासुर असुर का वध कर दिया।

  कामाख्या के दर्शन से पूर्व महाभैरव उमानंद, जो कि गुवाहाटी शहर के निकट ब्रह्मपुत्र नदी के मध्य भाग में टापू के ऊपर स्थित है, का दर्शन करना आवश्यक है। इस टापू को मध्यांचल पर्वत के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि यहीं पर समाधिस्थ सदाशिव को कामदेव ने कामबाण मारकर आहत किया था और समाधि से जाग्रत होने पर सदाशिव ने उसे भस्म कर दिया था।

मंदिर के नाम के बारे में मान्यता 


कामाख्या देवी मंदिर 1

  मान्यता है कि एक बार श्राप के चलते काम के देव कामदेव ने अपना पौरूष खो दिया जिन्हैं बाद में देवी शक्ति के जननांगों और गर्भ से ही श्राप से मुक्ति मिली। तब से यहां कामाख्या देवी की पूजा शुरू हुई। कुछ लोगों का मानना है कि यह वही स्थान है जहां पर माता सती और भगवान शिव के बीच प्रेम की शुरुआत हुई थी। प्रेम को संस्कृत में काम कहा जाता है इसलिए इस मंदिर का नाम कामाख्या देवी पड़ा। यह मंदिर कई बार तोड़ा और बनाया गया । आखरी बार इसे 16 वि सदी में नष्ट किया गया था जिसका पुनः निर्माण 17 वी सदी में राजा नर नारायण द्वारा किया गया।
                     जय माता दी ।

बाबा सिद्ध चानो की कहानी , इतिहास

बाबा सिद्ध चानो — 

  बाबा सिद्ध चानो की उत्तर भारत में बहुत मान्यता है । यहां पर बाबा के बहुत से मंदिर हैं । इनमें कुछ मंदिर जैसे बाबा का आनंदपुर में मंदिर, हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के प्रागपुर का मंदिर और विलासपुर जिले के समैला का मंदिर और हमीरपुर जिले के पिपलु के मंदिर काफी प्रसिद् हैं। इन मंदिरों में हर दिन भक्तों का तांता लगा रहता है लेकिन मंगलवार और शनिवार के दिन यहां आने बाले भक्तों की संख्या कई गुणा बढ़ जाती है। यंहा बाबा सिद्ध चानो को न्याय का देवता और सच्ची सरकार के रूप में पूजा जाता है। कहते हैं जिस किसी व्यक्ति को कहीं न्याय नहीं मिलता उसे बाबा के दरबार में न्याय मिलता है। मान्यता है जो कोई बाबा के दरबार में सच्ची श्रद्धा से आता है वह बाबा सिद्ध चानो के दरबार से कभी खाली हाथ नहीं जाता। 
 

बाबा जी की अरदास  

जै जै बाबा सिद्ध चानो जी, 
                       रखे तू रखावे तू, 
वख्शे तू वख्शावे तू, 
                      दुशमन की दौड़ से, 
घोड़े की पौड़ से, 
                      रक्षा करनी बाबा जी, 
हिन्दु को काशी, मुसलमान को मक्का, 
                     दुशमन को तेरे नाम का धक्का ।

जय बाबा सिद्ध चानो जी। 

बाबा सिद्ध चानो जी

बाबा सिद्ध चानो की कहानी 

Top 6 Way to Earn Money Online in Hindi👉click here 
Top 6 Way to Earn Money Online in Hindi👉click here
Top 6 Way to Earn Money Online in Hindi👉click here
Top 6 Way to Earn Money Online in Hindi👉click here

  प्राचीन समय की बात है द्वापर युग में कैलाश नाम का एक राजा मक्का मदीना में राज करता था। वह भगवान शिव जी का बहुत बड़ा भक्त था। राजा कैलाश के राज्य में हर कोई सुखी था परन्तु राजा उदास रहते थे। इसका कारण राजा के मंत्रियों ने जानना चाहा और कहा कि राजन आपके राज्य में हर कोई सुखी है , आप दुखी लोगों की सेवा करते हैं लेकिन फिर भी आप अन्दर ही अन्दर दुखी दिखाई देते हैं ऐसा क्यों है तब राजा ने बताया कि मैं अपनी कोई सन्तान नही होने से दुखी हूं। इस पर मंत्रियों ने कहा कि आप भगवान शिव के इतने बड़े भक्त हैं आप भगवान शिव की शरण में जाओ शिव जी आपकी मनोकामना जरूर पूरी करेंगे। तब राजा कैलाश ने भगवान शिव जी की तपस्या की जिससे खुश होकर शिव जी प्रकट हुए और राजा को बरदान मांगने के लिए कहा। राजा कैलाश ने उनसे पुत्र प्राप्ति का बरदान मांगा। भगवान शिव ने उन्हैं चार पुत्रों का बरदान दिया और कहा कि तुम्हारा सबसे छोटा पुत्र बलशाली और विशलकाय होगा। 

 यह पढ़ें:शनि शिंगणापुर की कहानी

  उसके बाद राजा कैलाश की पत्नी ने चार पुत्रों को जन्म दिया। राजा के पुत्रों का नामकरण किया गया और उनके नाम कानो, वानो, सदुर और छोटे पुत्र का नाम चाणुर रखा गया।
राजा के दरबार में रूक्को नाम की दाई थी जिसने इन वालकों का पालन पोषण किया । समय के साथ चारों वालक जवान हुए, चाणुर इन सब में बड़ा तेजस्वी और वलवान था। एक बार जब सभी भाई आपस में तलबारवाजी सीख रहे थे तो बड़े भाई की तलबार टूट गई । सभी बड़े भाइयों ने अपनी माता से शिकायत की कि चारुण ने बड़े भाई की तलबार तोड़ दी । जब यह बात माता ने सुनी तो उनको बहुत आश्चर्य हुआ कि छोटा वालक तलबार कैसे तोड़ सकता है । उन्होंने सभी वालकों को समझा बुझाकर बाहर भेज दिया। इसके बाद सभी भाई चाणुर से ईर्ष्या करने लगे।
  एक बार माता अम्बरी ने चाणुर को बगीचे से फल लाने के लिए भेजा लेकिन फल पेड़ पर बहुत ऊंचे लगे थे। वालक चाणुर के फल तक नही पहुंच पाने के कारण वह पेड़ को जड़ से उखाड़ कर माता के पास ले आए यह देखकर माता हैरान रह गई और बड़े भाई ईर्ष्या से देखने लगे। उनको यह डर सताने लगा कि अगर चाणुर की ताकत ऐसे ही बढ़ती गई तो एक दिन वह उनका राजपाठ छीन लेगा और उनको राज्य से बाहर निकाल देगा । 

 
  इस पर बड़े भाइयों ने चाणुर को अपने से अलग रखने की रणनीति बनाई। एक दिन चारों भाई शिकार खेलने के लिए निकले। सभी भाई चाणुर की ताकत से भली भांति परिचित थे। शिकार पर जाते समय उन्हैं रास्ते में मरी हुई हाथिनी पड़ी मिली जिसके कारण रास्ता बंद था। सभी भाई वहीं रूक गए उन्हैं अपनी बनाई रणनीति सफल होने के आसार नजर आने लगे। बड़े भाई ने कहा कि हम सबमें सबसे शक्तिशाली कौन है जो हाथिनी को रास्ते से हटा दे । तभी बड़े भाईयों की शाजिश से अन्जान चाणुर ने हाथिनी को उठाया और आसमान ओर फैंक दिया। तभी बड़े भाइयों ने कहा कि तूने यह क्या कर दिया, मरे हुए जानवर को उठाना क्षत्रियों का कार्य नही है आज से तुम अछूत हुए , हमारे साथ उठने बैठने और खाने पीने का अधिकार तुम खो चुके हो। उसी समय बड़े भाइयों ने चाणुर को अपने से अलग कर दिया।
  जब यह बात राजमहल पहुंची तो राजा ने तीनों भाइयों को समझाने का बहुत प्रयास किय लेकिन वह नही माने। इस बात पर एक सैनिक जिसका नाम चौपड था ने झूठी गवाही दी जिसके बाद यह फैंसला किया गया कि चाणुर को चौथे पहर अपने साथ मिलने का अधिकार दिया जाए। अब चाणुर चौथे पहर का इंतजार करने लगे लेकिन जब चौथा पहर आया तो बड़े भाइयों ने चालाकी से यह कह दिया कि चौथे पहर नहीं वल्कि चौथे युग में मिलने की बात कही गई थी। 

 

  अपने भाइयों के इस व्यवहार से दुखी होकर चाणुर ने सन्यास ले लिया और जंगलों की ओर चल पड़े।

बाबा सिद्ध चानो मंदिर

ऐसा माना जाता है कि जंगलों में बाबा चाणुर ने भगवान शिव जी की घोर तप्सया की और शिव जी से अनेक शक्तियां हासिल कीं। भगवान शिवजी से प्राप्त शक्तियों से बाबा चाणुर ने दीन दुखियों की सहायता की और उन्हैं न्याय दिलाया।

  जंगलों में भटकते हुए और तपस्या करते हुए बाबा सूर्य देश के राज्य में पंहुचे। वहां बाबा जी की भेंट सुर्य देश के राजा की कन्या लूणा से हुई । राजकुमारी लूणा ने बाबा चाणुर की सुंदर और सुडौल कद काठी देखकर उनसे विवाह करने का प्रस्ताव रखा लेकिन बाबा ने यह कहकर मना कर दिया कि मेरा रास्ता भक्ति का है। तब राजकुमारी लूणा ने यह आश्वासन दिया कि मैं आपके रास्ते में नहीं आऊंगी तो बाबा जी शादी के लिए तैयार हो गए ।

भगवान श्री कृष्ण से मलयुद्ध 

Top 6 Way to Earn Money Online in Hindi👉click here 
Top 6 Way to Earn Money Online in Hindi👉click here 
Top 6 Way to Earn Money Online in Hindi👉click here 

  एक बार जब बाबाजी भक्ति में लीन थे तो मथुरा नरेश राजा कंश के गुप्तचरों ने बाबा जी को देखा और यह खबर राजा कंश को दी । उसके बाद कंश बाबा चाणुर के पास आए और देखा कि इतने बड़े शरीर वाला व्यक्ति कौन है , राजा ने एक एक करके अपनी सारी शक्तियां चाणुर पर चलाईं पर सारी शक्तियां नष्ट होती गईं । तब राजा ने सोचा कि इसे अपना मित्र वना लेना चाहिए जो बाद में देवकी के पुत्र श्री कृष्ण को हराने में मेरा साथ देगा। 

 
  राजा कंश ने बाबा को अपने दरबार चलने के लिए कहा । जब चलने के लिए उठे तो उनका शरीर इतना बड़ा हो गया कि बाबा जी का लंगोट फट गया तो बाबा जी ने राजा के सामने अपना तन ढकने का प्रस्ताव रखा । तब राजा ने 72 गज की पगड़ी दी लेकिन यह बाबा जी के शरीर को नही ढंक पाई। तब बाबा ने यह भविष्यवाणी की कि आज से मैं शुद्र कहलाऊंगा । राजा कंश के दरबार पहुंचने पर कंश ने बाबा जी को अपनी सेना का सेनापति बना दिया।
  राजा कंश ने देवकी के पुत्र भगवान श्री कृष्ण को मारने के लिए छिंज्जों का आयोजन करवाया । जहां बड़े बड़े पहलवानों को आमंत्रित किया गया। 


  श्री कृष्ण और भाई बलराम को भी अखाड़े में बुलाया गया । बाबा चाणुर श्री कृष्ण से मलयुद्ध करने अखाड़े में आए । 22 दिन तक युद्ध चलता रहा लेकिन चाणुर ने हार नही मानी। तभी श्री कृष्ण ने भाई बलराम से पूछा कि 22 दिन युद्ध चले हो गए हैं यह कौन है जो हार नही रहा है । जब कुछ पता नही चला तो श्री कृष्ण ने भगवान शिव जी का ध्यान किया। तब भगवान शिव जी ने बताया कि इसका भेद मैं नहीं जानता लेकिन एक पुरुष का भेद उसकी पत्नी के पास होता है। उसके बाद श्री कृष्ण मनमोहक छलिए का रूप धारण कर बाबा चारूण की पत्नी लूणा के पास पहुंच गए और बातों में उलझाकर बाबा चाणुर की पत्नि से भेद जान लिया। चाणुर की पत्नी लूणा ने श्री कृष्ण को बताया कि मेरे पति को दुनिया में कोई नही हरा सकता क्योंकि उसकी जड़ें पताल में हैं और चोटी आसमान में है। वह धरती और आसमान के बीच खड़ा है। भेद जानकर श्री कृष्ण वहां से चले गए ।
  युद्ध दोवारा शुरू हुआ तो श्री कृष्ण ने चोटी को हटाने के लिए चूहे भेजे तो चाणुर ने उन्हैं मारने के लिए चिड़िया लगा दी। श्री कृष्ण ने पाताल से हटाने के लिए चींटियां भेजी तो बाबा चाणुर ने चींटियों को मारने के लिए मुर्गों को लगा दिया। जो आज भी बाबा के दरबार पर चढ़ाए जाते हैं। अब तक बाबा जी भगवान श्री कृष्ण को पहचान चुके थे। आखिर 22 दिन के बाद बाबा जी ने अपना घुटना जमीन पर लगा दिया और अपनी हार मान ली। उन्होंने श्री कृष्ण से क्षमा मांगी और घर चले गए। 
 
  घर जाकर उन्होंने अपनी पत्नी लूणा से क्रोध में आकर कहा कि आपने मेरा भेद पर पुरूष को बताकर अपना पति धर्म खो दिया है और जैसे ही बाबा जी ने उसे मारने के लिए हाथ उठाया उसी समय भगवान श्री कृष्ण मनमोहक रूप में प्रकट हुए। उन्होंने बाबा जी को रोका और कहा कि आपने कंश को मारने में मेरी सहायता की है इसलिए मैं तुम्हैं बरदान देता हूं कि कलयुग में आप न्याय के देवता एवं सच्ची सरकार के रूप में जाने जाओगे। जिस भी व्यक्ती को कोर्ट कचहरी में न्याय नहीं मिलता हो वह आपके दर पर आकर न्याय पाएगा। जो भी आपके दर आएगा उसकी मनोकामना पूरी होगी और कोई भी आपके दर से खाली हाथ नहीं जाएगा। आप को सिद्ध चानो के नाम से जाना जाएगा और आप सिद्ध कहलांएगे। तभी से बाबा चाणुर को चानो सिद्ध के नाम से जाना जाता है। बाबा चाणुर ने क्रोधित होकर अपनी पत्नी लूणा को अभिशाप दिया कि तुम अगले जन्म में मक्खि के रूप धारण करोगी और तन्त्र मन्त्र विद्या सब तेरे नाम से चलेगी। उसके बाद बाबा जी ने अपनी पत्नी का परित्याग कर दिया और तपस्या करने जंगलों की तरफ चले गए ।  
 

बाबा सिद्ध चानो आरती
 
    कहते हैं सबसे पहले बाबा जी आनंदपुर साहिव पहुंचे उसके बाद हिमाचल प्रदेश के जिला कांगड़ा के प्रागपुर में प्रकट हुए और उसके बाद बाबा जी हमीरपुर जिले के समैला में प्रकट हुए जहां उनके भव्य मंदिर हैं। कोई भी व्यक्ति जो बाबा के दरबार में न्याय की पुकार के लिए जाते है बाबा जी उनकी सहायता करते हैं।
   जय बाबा सिद्ध चानो जी ।




























72  

बाबा वालकनाथ दयोटसिद्ध का इतिहास, history of Baba Balak nath


बाबा बालकनाथ जी


बाबा बालक नाथ

  बाबा वालक नाथ जी का यह मंदिर हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर जिले के छकमोह गाँव की पहाडी के शिखर पर स्थित है। मंदिर में पहाडी के बीच एक प्राकॄतिक गुफा है ।ऐसी मान्यता है, कि यही स्थान बाबाजी का आवास स्थान था।

  बाबा जी को भारतीय राज्य पंजाब और हिमाचल प्रदेश में बहुत श्रद्धा से पूजा जाता है । इनके पूजनीय स्थल को दयोटसिद्ध के नाम से जाना जाता है। मंदिर में बाबाजी की एक मूर्ति स्थित है, भक्तजन बाबाजी को प्रसाद के रूप में रोट चढाते हैं । रोट को आटे, चीनी, गुड और घी को मिलाकर बनाया जाता है। यहाँ पर बाबाजी को बकरा भी चढ़ाया जाता है लेकिन यहाँ पर बकरे की बलि नहीं चढाई जाती बल्कि उनका पालन पोषण करा जाता है।

  बाबाजी की गुफा में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबन्ध है, लेकिन उनके दर्शन के लिए गुफा के बिलकुल सामने एक ऊँचा चबूतरा बनाया गया है, जहाँ से महिलाएँ उनके दूर से दर्शन कर सकती हैं। मंदिर से करीब छहः कि.मी. आगे एक स्थान शाहतलाई स्थित है, ऐसी मान्यता है, कि इसी जगह बाबाजी ध्यानयोग किया करते थे।

बाबा बालकनाथ जी की कहानी -

  ऐसी मान्यता है, कि बाबाजी का जन्म सभी युगों में हुआ और हर एक युग में उनको अलग-अलग नाम से जाना गया जैसे सत युग में स्कन्द , त्रेता युग में कौल और द्वापर युग में महाकौल के नाम से जाना गया अपने हर अवतार में उन्होंने गरीबों एवं निस्सहायों लोगों की सहायता करके उनके दुख दर्द और तकलीफों को खत्म किया। हर एक जन्म में यह शिव के बडे भक्त कहलाए। द्वापर युग में बाबाजी

  जिस समय कैलाश पर्वत जा रहे थे, जाते हुए रास्ते में उनकी मुलाकात एक वृद्ध स्त्री से हुई । उसने बाबा जी से गन्तव्य में जाने का कारण पूछा तो बाबाजी ने वृद्ध स्त्री को बताया कि वह शिव जी के भक्त हैं और वह भगवान शिव से मिलने जा रहे हैं तो उसने उन्हें मानसरोवर नदी के किनारे तपस्या करने की सलाह दी और माता पार्वती जो कि मानसरोवर नदी में अक्सर स्नान के लिए आया करती थीं से उन तक पहुँचने का उपाय पूछने के लिए कहा। बाबाजी ने बिलकुल वैसा ही किया और अपने उद्देश्य, भगवान शिव से मिलने में सफल हुए। बालयोगी बाबा जी को देखकर शिवजी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने बाबाजी को कलयुग तक भक्तों के बीच सिद्ध प्रतीक के तौर से पूजे जाने का आशिर्वाद प्रदान किया और चिर आयु तक उनकी छवि को बालक की छवि के तौर पर बने रहने का भी आशिर्वाद दिया।

  कलयुग में बाबा बालकनाथ जी ने गुजरात, काठियाबाद में देव के नाम से जन्म लिया। उनकी माता का नाम लक्ष्मी और पिता का नाम वैष्णो वैश था, बचपन से ही बाबाजी आध्यात्म में लीन रहते थे। यह देखकर उनके माता पिता ने उनका विवाह करने का निश्चय किया परन्तु बाबाजी उनके प्रस्ताव को ठुकरा करके और घर परिवार को छोड़ कर परम सिद्धी की राह पर निकल पड़े। एक दिन जूनागढ़ की गिरनार पहाडी में उनका सामना स्वामी दत्तात्रेय से हुआ और यहीं पर बाबाजी ने स्वामी दत्तात्रेय से सिद्ध की बुनियादी शिक्षा ग्रहण की और सिद्ध बने। तभी से उन्हें बाबा बालकनाथ कहा जाने लगा।

बाबा बालक नाथ शाहतलाई

  बाबाजी के दो पृथ्क साक्ष्य अभी भी उप्लब्ध हैं जो कि उनकी उपस्तिथि के अभी भी प्रमाण हैं जिन में से एक है गरुन का पेड़ । यह पेड़ अभी भी शाहतलाई में मौजूद है, इसी पेड़ के नीचे बाबाजी तपस्या किया करते थे। दूसरा प्रमाण एक पुराना पोलिस स्टेशन है, जो कि बड़सर में स्थित है जहाँ पर उन गायों को रखा गया था जिन्होंने सभी खेतों की फसल खराब कर दी थी, जिसकी कहानी इस तरह से है कि, एक महिला जिसका नाम रत्नो था, ने बाबाजी को अपनी गायों की रखवाली के लिए रखा था । जिसके बदले में रत्नो बाबाजी को रोटी और लस्सी खाने को देती थी । ऐसी मान्यता है कि बाबाजी अपनी तपस्या में इतने लीन रहते थे कि रत्नो द्वारा दी गयी रोटी और लस्सी खाना याद ही नहीं रहता था। एक बार जब रत्नो बाबाजी की आलोचना कर रही थी कि वह गायों का ठीक से ख्याल नहीं रखते जबकि रत्नो बाबाजी के खाने पीने का खूब ध्यान रखतीं हैं। रत्नो का इतना ही कहना था कि बाबाजी ने पेड़ के तने से रोटी और ज़मीन से लस्सी को उत्त्पन्न कर दिया। बाबाजी ने सारी उम्र ब्रह्मचर्य का पालन किया और इसी बात को ध्यान में रखते हुए उनकी महिला भक्त गर्भगुफा में प्रवेश नहीं करती जो कि प्राकृतिक गुफा में स्थित है जहाँ पर बाबाजी तपस्या करते हुए अंतर्ध्यान हो गए थे।

जय बाबा वालक नाथ

पशुपतिनाथ मंदिर नेपाल का इतिहास

   

भगवान पशुपतिनाथ मंदिर -

पशुपतिनाथ मंदिर नेपाल

  पशुपतिनाथ मंदिर नेपाल की राजधानी काठमांडू से तीन किलोमीटर दूर देवपाटन गांव में बागमती नदी के तट पर स्थित है। यह मंदिर भगवान शिव के पशुपति स्वरूप को समर्पित है। भगवान पशुपतिनाथ का मंदिर नेपाल में शिव का सबसे पवित्र मंदिर माना जाता है। यह मंदिर हिन्दू धर्म के आठ सबसे पवित्र स्थलों में से एक माना जाता है।
  भगवान शिव के पशुपति स्वरूप को समर्पित इस मंदिर में दर्शन के लिए प्रतिवर्ष हजारों भक्त आते हैं, जिसमें से अधिकतर संख्या भारत के लोगों की होती है। इस मंदिर में भारतीय पुजारियों की काफी संख्या है। सदियों से यह परंपरा रही है कि मंदिर में चार पुजारी और एक मुख्य पुजारी दक्षिण भारत के ब्राह्मणों में से रखे जाते हैं। मान्यता के अनुसार मंदिर का निर्माण सोमदेव राजवंश के राजाओं ने तीसरी सदी ईसा पूर्व करवाया था ।

पशुपतिनाथ मंदिर नेपाल 1

पशुपतिनाथ मंदिर की कहानी - 

  पशुपतिनाथ काठमांडू घाटी के प्राचीन शासकों के देवता रहे हैं। मूल मंदिर कई बार नष्ट हुआ। इसे वर्तमान रूप में नरेश भूपलेंद्र मल्ला ने 1697 में बनबाया था। पशुपतिनाथ के बारे में प्रचलित कहानियों मे लगभग मिलता जुलता वर्णन मिलता है।

भारतीय ग्रंथों के अनुसार -

  भारतीय ग्रंथों के अनुसार पशुपतिनाथ के विषय में मान्यता है कि महाभारत युद्घ में विजय के बाद पांण्डव अपने गुरूजनों और सगे संबंधियों को मारने के बाद दुखी थे और अपने पापों से मुक्ती चाहते थे। वे भगवान श्री कृष्ण के पास गए और अपने पापों से मुक्ति का उपाय पूछा । तब भगवान श्री कृष्ण ने उनसे कहा कि भगवान शिव ही आपको पापों से मुक्त कर सकते हैं।
  भगवान श्री कृष्ण के कहने पर पांण्डव शिव जी को मनाने चल पड़े। पांण्डवों द्वारा अपने गुरूओं एवं सगे-संबंधियों का वध किये जाने से भगवान शिव जी पांण्डवों से नाराज हो गये थे । गुप्त काशी में पांण्डवों को देखकर भगवान शिव वहां से विलीन हो गये और उस स्थान पर पहुंच गये जहां पर वर्तमान में केदारनाथ स्थित है।
  लेकिन पांण्डव भगवान शिव को हर हाल में मनाना चाहते थे। शिव जी का पीछा करते हुए पांण्डव केदारनाथ पहुंच गये। इस स्थान पर पांण्डवों को आया हुए देखकर भगवान शिव ने एक बैल का रूप धारण किया और इस क्षेत्र में चर रहे बैलों के झुंण्ड में शामिल हो गये। पांण्डवों ने बैलों के झुंण्ड में भी शिव जी को पहचान लिया तो शिव जी बैल के रूप में ही धरती में समाने लगे। भगवान शिव को बैल के रूप में धरती में समाता देख भीम ने कमर से कसकर पकड़ लिया।

पशुपतिनाथ मंदिर नेपाल 2

  पांण्डवों की सच्ची श्रद्धा को देख भगवान शिव प्रकट हुए और पांण्डवों को पापों से मुक्त कर दिया। इस बीच बैल बने शिव जी का सिर काठमांडू स्थित पशुतिनाथ में पहुंच गया। इसलिए केदारनाथ और पशुपतिनाथ को मिलाकर एक ज्योर्तिलिंग भी कहा जाता है। केदरनाथ में बैल के पीठ रूप में शिवलिंग की पूजा होती है जबकि पशुपतिनाथ में बैल के सिर के रूप में शिवलिंग को पूजा जाता है।
  नेपाल स्थित पशुपतिनाथ के विषय में मान्यता है कि जो व्यक्ति पशुपति नाथ के दर्शन करता है उसका जन्म कभी भी पशु योनी में नहीं होता है। मान्यता यह भी है कि इस मंदिर में दर्शन के लिए जाते समय भक्तों को मंदिर के बाहर स्थित नंदी के दर्शन पहले नहीं करने चाहिए। जो व्यक्ति पहले नंदी के दर्शन करता है बाद में शिवलिंग का दर्शन करता है उसे अगले जन्म पशु योनी मिलती है।

स्थानिय ग्रंथों के अनुसार—


पशुपतिनाथ मंदिर नेपाल 3

  स्थानीय ग्रंथों के अनुसार, विशेष तौर पर नेपाल महात्म्य और हिमवतखंड के अनुसार भगवान शिव एक बार वाराणसी के अन्य देवताओं को छोड़कर बागमती नदी के किनारे स्थित मृगस्थली चले गए, जो बागमती नदी के दूसरे किनारे पर जंगल में है। भगवान शिव वहां पर चिंकारे का रूप धारण कर निद्रा में चले गए।
  जब देवताओं ने उन्हें खोजा और उन्हें वाराणसी वापस लाने का प्रयास किया तो उन्होंने नदी के दूसरे किनारे पर छलांग लगा दी। कहते हैं इस दौरान उनका सींग चार टुकडों में टूट गया। इसके बाद भगवान पशुपति चतुर्मुख लिंग के रूप में प्रकट हुए ।
पशुपतिनाथ लिंग विग्रह में चार दिशाओं में चार मुख और ऊपरी भाग में पांचवां मुख है। प्रत्येक मुखाकृति के दाएं हाथ में रुद्राक्ष की माला और बाएं हाथ में कमंडल है। प्रत्येक मुख अलग-अलग गुण प्रकट करता है। पहला मुख 'अघोर' मुख है, जो दक्षिण की ओर है। पूर्व मुख को 'तत्पुरुष' कहते हैं। उत्तर मुख 'अर्धनारीश्वर' रूप है। पश्चिमी मुख को 'सद्योजात' कहा जाता है। ऊपरी भाग 'ईशान' मुख के नाम से पुकारा जाता है। यह निराकार मुख है। यही भगवान पशुपतिनाथ का श्रेष्ठतम मुख है।

   जय बाबा पशुपतिनाथ।


काल भैरव मंदिर के रहस्य, काल भैरव मंदिर की कहानी

         इस मंदिर में चढाई जाती शराब 


Kaal vairb mandir ujjian

   हमारे देश में अनेक ऐसे मंदिर  हैं जिनके रहस्य आज भी अनसुलझे हैं। उन्हीं में से एक है उज्जैन में स्थित काल भैरव मंदिर। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहां पर काल भैरव प्रत्यक्ष रूप में मदिरापान करते हैं। मंदिर में काल भैरव के मुंह से जब शराब से भरे प्याले लगाये जाते तो देखते ही देखते यह प्याले खाली हो जाते हैं।

एक अंग्रेज ने की थी पता लगाने की कोशिश - 

  कहते हैं कि बहुत साल पहले एक अंग्रेज अधिकारी द्वारा इस बात का पता लगाने की कोशिश की गई कि आखिर यह

कन्या कुमारी मंदिर के रहस्य , कन्याकुमारी मंदिर का इतिहास

 

     तमिलनाडु के कन्या कुमारी शहर का नाम देवी कन्या कुमारी के नाम पर पड़ा है। यह जगह चोला  ,चेरा , पांड्या और नायका राज्यों का  घर  रहा है।  कला और धर्म - संस्कृति का पुराना गढ़ है। कन्या कुमारी में तीन समुद्रों बंगाल की  खाड़ी , अरब सागर और हिन्दमहासागर का मिलन होता है। इस स्थान को त्रिवेणी संगम भी कहा जाता।
  कन्या कुमारी का यह मंदिर 3000 साल से ज्यादा पुराना है। इस मंदिर को भगवान परशुराम ने स्थापित किया था। कन्या कुमारी अपने सूर्य उदय के लिए बहुत मशहूर है। हर रोज होटलों  की छत पर पर्यटकों की भीड़ उगते हुए सूरज को देखने के लिए जमा हो जाती है।
  कन्या कुमारी मंदिर की कहानी -
  ऐसी मान्यता है कि कुमारी नामक कन्या आदिशक्ति के अंश से उतन्न हुई थी। इनका जन्म वाणासुर नामक असुर का वध करने के लिए हुआ था। असुर को कुंवारी कन्या के हाथों मरने का वरदान प्राप्त था।
  ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए देवी ने घोर तपस्या की थी। भगवान शिव ने विवाह के लिए वचन भी दिया था।  एक दिन बारात लेकर शिवजी निकल भी पड़े।
 लेकिन लेकिन नारद ने सुचिन्द्रम नामक स्थान पर ऐसा  उलझाया कि विवाह का महूर्त निकल गया। ऐसा मानना है कि देवी का विवाह हो जाने पर असुर वाणासुर का वध नहीं हो पाता। इसलिए देवताओं के कहने पर नारद जी ने शिव जी और कुमारी नामक कन्या के विवाह में बाधक बनने का काम किया। देवी के कुंवारी रह जाने के कारण इस जगह का नाम
कन्या कुमारी पड़ा।
  जहां पर विवाह होना था वह वर्तमान में कन्या कुमारी तीर्थ कहलाता है। देवी का विवाह नहीं होने पर विवाह के लिए एकत्र किये हुए अन्न को बिना पकाए छोड़ दिया गया और समुद्र में फैंक दिया गया। बाद में यह सब पत्थर में बदल गया।
 कहा जाता  है कि इसलिए ही कन्याकुमारी में समुद्र के किनारे रेत में दाल और चावल के रंगों बाले कंकर पत्थर बहुत मिलते हैं। यह कंकर पत्थर आकार में भी दाल या चावल के बराबर ही होते हैं।

मेंहदीपुर बालाजी मंदिर के चमत्कार , मेंहदीपुर बालाजी मंदिर का इतिहास

   बालाजी के नाम से भागते हैं भूत प्रेत - 



आइए जानते हैं भारत के चमत्कारिक मंदिर मेंहदीपुर बालाजी के बारे में -
 
Balaji mandir
Mehandipur Balaji Temple 

  आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि बालाजी मंदिर को भूत प्रेत या बुरी आत्माओं से किसी शरीर को छुड़ाने के लिए जाना जाता है। बालाजी का यह मंदिर राजस्थान के दौसा जिले के मेंहदीपुर में स्थित है। यह मंदिर हनुमान जी को समर्पित है। माना जाता है कि कई सालों पहले हनुमान जी और प्रेतराज अरावली पर्वत पर प्रकट हुए थे।
  कहा जाता है कि हर तरह के उपाय कराने के बाद जब लोग हर जाते हैं तो वह मेंहदीपुर बालाजी की शरण में आते हैं। यह भी कहा जाता है कि जिसने भी यहां आकर हाजरी लगाई वह कभी खाली हाथ नहीं जाता।

  मंदिर में वजरंग वली बाल रूप में मूर्ति रूप में विराजमान हैं। इस मूर्ति के बाईं ओर एक छोटा छिद्र है जिससे पवित्र जल धारा बहती है। इस जल को भक्तजन चरणामृत के रूप में अपने साथ ले जाते हैं ।

    बालाजी के साथ हैं कोतवाल कप्तान भैरव और प्रेतराज सरकार -


   मंदिर में बालाजी के साथ कोतवाल कप्तान भैरव और प्रेतराज सरकार की मूर्तियां भी हैं। मंदिर में ऊपरी वाधा से ग्रसित लोग अजीव गरीव हरकत करते नजर आते हैं। मंदिर में पंडित इन रोगियों का उपचार करते हैं।

Balaji mandir ka najara
Mehandipur Balaji

   शनिवार और मंगलवार को यहां आने वाले भक्तों की संख्या लाखों में पहुंच जाती है। कई गंभीर रोगयों को तो जंजीरों  से बांध कर लाया जाता है। ऐसे लोग यहां से विना किसी दवा और तंत्र मन्त्र के ठीक होकर जाते हैं।
  अन्य मंदिरों की तरह यहां प्रसाद नहीं चढ़ाया जाता हलांकि मंदिर में हाजिरी लगाने के नाम पर यहां मिलने बाले  छोटे छोटे लड्डू जरूर चढ़ाये जाते हैं।यहां कोतवाल कप्तान भैरव  को उड़द और प्रेतराज सरकार को चावल भी चढ़ाए जाते हैं लेकिन ज्यादातर लोग लड्डू ही चढ़ाते हैं। इस प्रसाद में से दो लड्डू रोगी को खिलाये जाते हैं और बाकी पशु पक्षियों को खिलाये जाते हैं। कहते हैं इन पशु पक्षियों के रूप में देवी देवताओं के दूत प्रसाद ग्रहण करते हैं।  परंतु इन लड्डुओं को प्रसाद के रूप में घर नहीं ले जा सकते। दरवार से जल या भभूती ले जाने का ही नियम है।
  कहा जाता है की मुस्लिम शासन काल में कुछ बादशाहों ने इस मूर्ति को नष्ट करने की कोशिश की लेकिन हर बार असफलता हाथ लगी। बादशाह जितना इसे जितना खुदवाते गए मूर्ति की जड़ उतनी ही गहरी होती गई। अंत में हारकर उन्हें यह प्रयास छोड़ना पड़ा।

                                                         जय वजरंग वली। 

शिमशा माता मंदिर के चमत्कार , शिमला माता मंदिर की कहानी

  इस मंदिर में सोने से होती है निसंतान महिलाओं को संतान की प्राप्ति - 


Shimsa mata mandir

   भारत देवी देवताओं की भूमि है। यहाँ बहुत  से मंदिर अपने चमत्कारिक रहस्यों के लके जाने जाते हैं। उन्हीं  में से एक है सिमसा माता का मंदिर।यह मंदिर वैज्ञानिक तर्कों से हटकर आस्था का केंद्र है। यह मंदिर हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले की लड़भड़ोल तहसील के सिमस गांव में सिथत है। यह स्थान सिमसा माता मंदिर के नाम से दूर दूर तक प्रसिद्ध है। इस मंदिर के बारे में हैरान करने वाली बात यह है कि निःसंतान महिलाएं  मंदिर के फर्श पर सोने मात्र से संतान प्राप्ति का सुख पाती हैं। कहते हैं इस मंदिर में निःसंतान महिलाओं के फर्श पर सोने से उन्हें संतान की प्राप्ति होती है। सिमसा माता को संतान दात्री के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ पर ऐसा क्यों होता है इस बात से वैज्ञानिक भी हैरान हैं। इस मंदिर में संतान प्राप्ति के लिए नवरात्रों का विशेष महत्व है। बताया जाता है कि इस अवसर पर हिमाचल के पड़ोसी राज्यों पंजाब , हरियाणा और चंडीगढ़ से सैंकडों विवाहित निसंतान जोड़े इस मंदिर में आते हैं। नवरात्रों में होने वाले इस उत्सव को

करणी माता मंदिर के रहस्य, करणी माता मंदिर का इतिहास

    इस मंदिर में होते हैं हजारों चूहे - 


Karni mata mandir

  करणी माता का मंदिर राजस्थान के वीकानेर जिले के देशनोक कस्बे में स्थित है। इस मंदिर की अनोखी बात यह है कि यहां लगभग बीस हजार काले चूहे रहते हैं। चूहों के कारण इस मंदिर को चूहों वाला मंदिर भी कहा जाता है। करणी माता को दुर्गा माता का रूप माना जाता है। यहाँ पर चूहों को कावा कहा जाता है और इन्हें यहां पर भोजन करवाया जाता है और इनकी सुरक्षा की जाती है। यहां पर इतने चूहे हैं कि यहाँ पर आने वाले श्रद्धालुओं को अपने पांव को घिसकर चलना पड़ता है। यहाँ यह माना जाता है कि किसी  श्रद्धालु के पैर के नीचे आकर कोई चूहा मर जाता है तो अपशकुन होता  है और अगर चूहा किसी श्रद्धालु के पैर के ऊपर से निकल जाए तो उस पर माँ की विशेष कृपा होगी ऐसा माना जाता है। यहां पर हज़ारों काले चूहों के वीच सफेद चूहे भी हैं। यदि कोई श्रद्धालु सफेद चूहे को देख लेता है तो उसकी मनोकामना