घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग-
मान्यता-
मान्यता है की घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग और शिवालय सरोवर का दर्शन करने से सब प्रकार के अभीष्ट प्राप्त होते हैं। निसंतानों को संतान की प्राप्ति होती है। घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन व पूजन करने से सब प्रकार के सुखों की वृद्धि होती है।
मंदिर का निर्माण-
इस प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्धार महाराजा शिवाजी के दादा जी मालोजी भोंसले (वेरुल) ने 16वीं शताब्दी में कराया था। उसके पश्चात् इस मंदिर का पुनर्निर्माण 18वीं शताब्दी में इंदौर की महारानी, अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया था, जिन्हें काशी विश्वनाथ मंदिर, गया के विष्णु मंदिर और सोमनाथ के भव्य मंदिर जैसे अनेकों हिन्दू मंदिरों का जीर्णोद्धार कराने के लिए जाना जाता है। मुगल शासनकाल के दौरान कई बार इस मंदिर को ध्वस्त किया, और बार बार इस मंदिर का पुनर्निर्माण किया गया। मुग़ल साम्राज्य के पतन के बाद अहिल्याबाई होल्कर द्वारा वर्तमान मंदिर का निर्माण कराया गया।
घृष्णेश्वर मंदिर की कथा-
भारत के दक्षिण प्रदेश के देवगिरि पर्वत के निकट सुकर्मा नामक ब्राह्मण और उसकी पत्नी सुदेश निवास करते थे। दोनों ही भगवान शिव के परम भक्त थे। परंतु इनके कोई संतान सन्तान नही थी, जिसके कारण वे बहुत दुखी रहते थे। इस कारण उनकी पत्नि उनसे दूसरी शादी करने का आग्रह करती रहती थी। अंतत: पत्नि के जोर देने पर सुकर्मा ने अपनी पत्नी की बहन घुश्मा के साथ विवाह कर लिया।घुश्मा भी शिव भगवान की अनन्य भक्त थी और भगवान शिव की कृपा से उसे एक पुत्र की प्राप्ति हुई। पुत्र प्राप्ति से घुश्मा का मान बढ़ गया। इस कारण सुदेश को उससे ईष्या होने लगी जब पुत्र बड़ा हो गया तो उसका विवाह कर दिया गया यह सब देखकर सुदेहा के मन मे और अधिक ईर्षा पैदा हो गई। जिसके कारण उसने पुत्र का अनिष्ट करने की ठान ली ओर एक दिन रात्रि में जब सब सो गए तब उसने घुश्मा के पुत्र को चाकू से मारकर उसके शरीर के टुकड़े कर दिए और उन टुकड़ों को सरोवर में डाल दिया जहां पर घुश्मा प्रतिदिन पार्थिव लिंग का विसर्जन किया करती थी।
सुवह उठकर जब घुश्मा को इस बारे में पता चला तो घुश्मा जरा भी विचलित नहीं हुई और अपने नित्य पूजन व्रत में लगी रही। वह भगवान से अपने पुत्र को वापिस पाने की कामना करने लगी। वह प्रतिदिन की तरह शिव मंत्र ऊँ नम: शिवाय का उच्चारण करती हुई पार्थिव लिंगों को लेकर सरोवर के तट पर गई। जब उसने पार्थिव लिंगों को तालाब में प्रवाहित किया तो उसका पुत्र सरोवर के किनारे खड़ा हुआ दिखाई पड़ा। अपने पुत्र को देखकर घुश्मा प्रसन्नता से भर गई। जब उसे पुत्र की मृत्यु के कारण का पता चला तो भी उसे अपनी बडी़ बहन पर क्रोध नही आया। घुश्मा की इसी सरलता, भक्ति और विशवास से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उसको दर्शन दिए।
भगवान शिव घुश्मा की भक्ति से बहुत प्रसन्न थे उन्होंने घुश्मा को वरदान मांगने के लिए कहा, भगवाने ने कहा यदि वो चाहे तो वो उसकी बहन को दण्ड देगें। परंतु घुश्मा ने श्रद्धा पूर्वक महेश्वर को प्रणाम करके कहा कि सुदेहा बड़ी बहन है अत: आप उसकी रक्षा करे और उसे क्षमा करें। घुश्मा ने कहा हे 'महादेव' अगर आप मुझे वर देना चाहते हैं तो लोगों की रक्षा और कल्याण के लिए आप यहीं सदा निवास करें। घुश्मा की प्रार्थना से प्रसन्न भगवान शिव जी ने उस स्थान पर सदैव वास करने का वरदान दिया। तथा उसी समय वह ज्योतर्लिंग के रूप में उस स्थान पर स्थापित हुए और घुश्मेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए।
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